राजीव गांधी : सियासत का नौसिखिया आखिर में बन बैठा पूरा नेता

नई दिल्ली: मां की ह्त्या के बाद सहानुभूति लहर पर सवार होकर प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी सियासत में नौसिखिये ही थे। ना वो राजनीति में आना चाहते थे और शायद ना ही राजनीति उनकी फितरत में थी। भाई संजय की आकस्मिक मृत्यु  मान आग्रह पर उन्हें राजनीति में आना पड़ा और प्रधानमन्त्री मां की ह्त्या के बाद कांग्रेस को संभालने के नाम पर देश की बागडोर संभालनी पड़ी।

इस लिहाज से राजीव स्वभावतः साधारण इंसान थे और बतौर प्रधानमंत्री उनके फैसलों में यह बात लगातार जाहिर भी हुई। दांव-पेंच से दूर वो इंदिरा और संजय से कितना अलग हैं यह तमाम मौको पर सामने आया। तानाशाही से अलग हटकर पंचायतों तक सत्ता पहुँचाने की पहल और साफ़ सुथरी छवि के बूते पार्टी को भी एक अलग किस्म की पहचान दिलवाने में राजीव गांधी को हमेशा याद रखा जाएगा। उनका जन्म आज ही दिन हुआ हुआ था।

पंजाब और असम जैसे मुद्दों को संभालने पर मिली थी प्रशंसा

सबसे पहले जो उनके सामने बड़ा मुद्दा था वो खालिस्तान का मुद्दा था. जिसे राजीव ने बखूबी संभाला, पंजाब की स्थिति को संभालने में राजीव ने पार्टी लाइन से हटकर फैसले लिए. कुछ ऐसे फैसले जो इंदिरा गांधी या राजीव कभी नही ले पाते. राजीव गांधी ने पंजाब में अपनी विपक्षी पार्टी को मौका दिया. सभी अकाली नेताओं को रिहा कर दिया गया जिन्हें इंदिरा सरकार के समय जेल भेजा गया था. राजीव ने संत लोंगोवाला जैसे अकाली नेता का भरोसा जीत पंजाब के हालातों को ठीक किया जहां भिंडेरवाला कांड से अलगाव की भावना पनपी हुई थी. हालांकि ऐसा करने से पंजाब में अकालियों की स्थिति मजबूत हुई थी और कांग्रेस कमजोर पड़ गई थी.

राजीव गांधी, संत लोंगोवाल के साथ

वहीं मिजोरम और असम में भी कई मुद्दों को लेकर जो भारत सरकार के खिलाफ भावनाएं पैदा हो गई थी उन्हें राजीव ने बखूबी संभाला. उस समय असम में बांगलादेश से आए अवैध प्रवासियों को लेकर काफी आक्रोष फैला हुआ था. असम गण परिषद् द्वारा ये मांग उठाई जा रही थी कि 25 मार्च 1971 के बाद आए बांगलादेश प्रवासियों को वापिस उनके देश भेजा जाए. राजीव ने वहां की स्थिति को संभालते हुए उनकी इस मांग को स्वीकार किया और बदले में एक शांत असम हासिल किया. वहीं मिजोरम को भी एक अलग राज्य का दर्जा देकर उन्होने वहां फैली भारत विराधी भावना को भी काफी हद तक खत्म कर दिया था.

अपने इन फैसलों से वो एक स्टेट्समैन की छवि बना चुके थे. किंतु उनके राजनीति में नए होने के चलते वो कुछ ऐसी गलतियां भी कर गए जिससे आजतक विपक्षी पार्टियां कांग्रेस पर निशाना साधती हैं.

शाहबानों मामले अपने फैसले से पलट गए थे राजीव

इनमें सबसे बड़ी घटना थी शाहबानो मामले में कांग्रेस के अलट-पलट वाली स्थिति. शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा था. फैसले में शाहबानों से तलाक ले चुके पति को उन्हें हर महीने गुजारा-भत्ता देने की बात कही गई थी और शाहबानो के पति द्वारा दिए गए इस्लामिक कानून के हवाले को कोर्ट के दरकिनार कर दिया था. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शाहबनो मामले में धारा 125 का उल्लंघन हुआ है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा था कि मुस्लिम और हिंदु धर्म में कई कानून हैं जो महिलाओं के खिलाफ हैं और उनके अधिकारों का हनन करते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का राजनीतिक महत्व देखते हुए सांसद जी एम बनातवाला ने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल का प्रस्ताव रखा. इस बिल में धारा 125 मुस्लिम महिलाओं पर लागू होने से हटाने की बात कही गई थी. जिससे शाहबानो मामले में आए सुप्रीम कोर्ट का फैसला बेअसर हो जाता. लेकिन राजीव गांधी सरकार में गृहमंत्री पद पर आसीन मुहम्मद आरिफ खान ने इस बिल पर कड़ा विरोध जताया था. राजीव गांधी के साथ से मिली हिम्मत से मुहम्मद आरिफ खान और कांग्रेस ने बिल के खिलाफ वोटिंग कर उसे पारित होने से रोक दिया था.

लेकिन मुस्लिम महिलाओं को लेकर प्रोग्रेसिव बातें करने वाली राजीव सरकार ने जल्द ही वोट बैंक के आगे घुटने टेक दिए. सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रशंसा करने पर कांग्रेस को कई उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था. जिसके चलते राजीव सरकार ने इस मामले में जल्द ही अपना रुख बदला और संसद में एक बिल पेश किया गया. इस बिल से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया और तलाक के बाद मुस्लिम महिलाओं की जिम्मेदारी उसके परिवार और रिश्तेदारों पर ही डाल दी गई. बिल से उस इस्लामिक कानून को ही फिर से लागू कर दिया गया जिसके मुताबिक तलाक के बाद मुस्लिम पति को केवल तीन महीने की ही सहायता राशी देनी पड़ेगी. शाहबानो मामले में इस तरह पलट कर ये साबित हो गया था कि राजीव गांधी राजनीति में अभी कच्चे हैं और वोट बैंक के डर से कड़े फैसले लेने में हिचकिचाते हैं.

राममंदिर पर विवादित फैसले से अब तक होती है आलोचना 

शाहबानो मामले में राजीव और उनकी रुख को मुस्लिम तुष्टिकरण की परिणति कहा ही जाना था और कहा भी गया. इस बीच निचली अदालत से एक और फैसला आया. पहली फरवरी 1987 में अयोध्या की निचली अदालत द्वारा दिए गए इस आदेश में बाबरी मस्जिद परिसर स्थित भगवान् राम की मूर्ति के दर्शन और पूजा की इजाजत हिन्दू पक्ष को दे दी गई. राजीव गांधी ने  इस फैसले के अमल में बिलकुल विलम्ब नहीं किया. राम जन्म स्थान के ताले खुलवा कर पूजा शुरू करवा दी. यह कदम शाहबानो केस वजह से बहुसंखयक हिंदुओं में उपजी नाराजगी को ख़त्म करने की कोशिश के तौर पर देखा गया.

इतिहासकार रामचंद गुहा ने तो अपनी किताब में यहां तक लिखा है कि निचली अदालत का फैसला पीएमओ दखल  पर आया था. इस फैसले को एक बैलेंसिंग एक्ट के तौर पर माना जा रहा था. शाहबानो मामले में आए फैसले को पलट कर जहां कांग्रेस ने मुस्लिम वोटबैंक को बचाने की कोशिश की थी. वहीं सालों से विवादित बाबरी मस्जिद में स्थित राम मंदिर में प्रार्थना करने के आदेश दिलवाने के साथ कांग्रेस ने हिंदुओं को भी अपने साथ करने की कोशिश की गई थी. इन दोनो ही फैसलों से राजीव सरकार की फजीहत हुई और इसके परिणाम कांग्रेस की राजनीति के लिए भी घातक रहे.

आज भी कांग्रेस की विपक्षी पार्टियां खासकर भाजपा इन दोनों मुद्दों पर कांग्रेस को घेरती है. वहीं अपनी राजनीति की शुरुआत में जो बेदाग नेता की छवि राजीव गांधी ने बनाई थी वो भी उनके इन दो फैसलों से धूमिल हो गई और वो मिस्टर क्लीन और स्टेट्समैन से एक विशुद्ध नेता बन गए.

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