25 साल बाद एक बार फिर सपा-बसपा गठबंधन, 1993 जैसे करिश्मे की आस

लोकसभा चुनाव तारीखों की घोषणा से पहले राजनीतिक जगत में हलचल तेज हो गई है. आम चुनाव की तैयरियों और मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए विपक्षी दल महागठबंधन की ओर बढ़ रहे हैं. कहीं दुश्मनी भूलाकर तो कही पूराने दोस्तों को किनारे कर जीत की राह तय करने के लिए गठबंधन किया जा रहा है. राजनीतिक नजरिये से समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी अपने मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं. दोनों सियासी दलों के पास 2019 के आम चुनाव में अपनी राजनीति को जिंदा रखने का मौका है.

जब बेअसर साबित हुआ गठबंधन

2 वर्ष पहले विधान सभा चुनाव से पूर्व लखनऊ के पांच सितारा ताज होटल में सपा प्रमुख अखिलेश यादव और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गठबंधन कर नारा दिया था “यूपी के लड़के” और “यूपी को ये साथ पसंद हैं, साइकिल को हाथ पसंद हैं.” लेकिन यह गठबंधन विधानसभा चुनाव में बेअसर साबित हुआ था. आज एक बार फिर उसी ताज होटल में बसपा प्रमुख मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस कर गठबंधन का ऐलान करेंगे

करीब ढाई दशक बाद सपा-बसपा एक साथ

उत्तर प्रदेश की सियासत देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करती है. जातिगत समीकरण का कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा चुनाव पूर्व होने वाले गठबंधन से लगाया जा सकता है. सूबे में सबसे ज्यादा लोकसभा की सीटें हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 पर जीत दर्ज प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए थे. मोदी लहर में सपा अपने कुनबे में सिमट गई थी तो बसपा शून्य में चली गई थी. इसी का नतीजा था की 23 साल की दुश्मनी भूलाकर दोनों दल यूपी में हुए लोकसभा के उप चुनाव में एक साथ उतरे और गोरखपुर, फूलपुर के चुनाव में जीत हासिल की. इसी जीत के साथ बसपा-सपा को जीत का फॉर्मूला मिल गया.

उपचुनाव में मिली जीत ने तय किया फॉर्मूला

यूपी में सपा-बसपा गठबंधन को मिली जीत के बाद जो फॉर्मूला निकलकर आया उसी के सहारे समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव में दोहराने के लिए एक बार फिर हाथ मिलाकर चुनावी मैदान में उतरने को तैयार दिख रहे हैं. अखिलेश और मायावती गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरते हैं तो यूपी में एक बार फिर कोई करिश्मा देखने को मिल सकता है. 2014 के लोकसभा चुनाव पर नजर डाले तो मोदी लहर में जहां भाजपा 42.30 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रही थी, तो वहीं सपा-बसपा को 41.80 फीसदी वोट हासिल हुए थे. और इसी गणित के सहारे दोनों दल अपने अपने नफा-नुकासान तय कर आगामी लोकसभा चुनाव में उतर कर 1993 का करिश्मा दोहरा सकते है.

सपा-बसपा के पास मजबूत वोट बैंक

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के एक साथ आने से बीजेपी की राह 2019 के लोकसभा चुनाव में काफी मुश्किल भरी हो जाएगी. सूबे में दोनों दलों के पास मजबूत वोट बैंक है. यूपी में 12 फीसदी यादव, 22 फीसदी दलित और 18 फीसदी मुस्लिम हैं, जो कुल आबादी का 52 प्रतिशत हिस्सा है. इन तीनों समुदाय के वोट बैंक को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है. और ये किसी भी हाल में अपने सियासी दल से दूर नहीं जाते हैं. यदि 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा मिलकर चुनावी मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी की राह इस बार यूपी में आसान नहीं होगी.

सत्ता विरोधी लहर पर नजर

फिलहाल 5 साल में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. 2019 लोकसभा चुनाव में न तो 2014 के चुनाव जैसी मोदी लहर है और न ही सूबे में सपा-बसपा सत्ता में है. यही वजह है कि विपक्ष लगातार सरकार को घेरने में जुटा है. केंद्र की मोदी और राज्य की योगी सरकार को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है. इसके संकेत यूपी में तीन लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव आए नतीजे से साफ है. जिसमें बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा था. इन सीटों पर पहले बीजेपी काबिज थी. सपा-बसपा मोदी सरकार के सत्ता विरोधी लहर का भी फायदा उठाने में कामयाब हो रही हैं.

25 साल पहले जब हुआ सपा-बसपा का गठबंधन

25 साल पहले नब्बे के दशक में राम लहर पर ब्रेक लगाने का काम समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव और बहुजन समाज पार्टी के जनक कांशीराम ने मिलकर 1993  में विधान सभा चुनाव लड़ा था और भाजपा को दोबारा सत्ता पर काबिज होने से रोक दिया था. 1992 में अयोध्या में विवादास्पद ढांचा गिराये जाने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उत्तर प्रदेश एक बार फिर चुनाव के मुहाने पर खड़ा था. भाजपा को पूरा भरोसा था कि राम लहर उसे आसानी से दोबारा सत्ता पर पहुंचा देगी. तब उस समय बसपा सुप्रीमो काशीराम और सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की नजदीकियां चर्चा का केंद्र बन रही थीं. पहली बार दोनों पार्टियां विधानसभा चुनाव में गठबंधन कर बीजेपी के सामने चुनाव मैदान में उतरीं. इस गठबंधन के साथ एक नारा निकला “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.”

1993 के चुनाव में दिखा था असर

1993 में कल्याण सिंह के इस्तीफा देने के बाद हुए यूपी की 422 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए थे. इस चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के सहारे मैदान में उतरे थे, और चुनाव लड़े. बसपा ने कुल 164 प्रत्याशी मैदान में उतारे जिनमें से  67 उम्मीदवारों जीते थे. वहीं सपा ने अपने 256 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा, जिनमें से 109 को जीत हासिल हुई थी. बीजेपी 177 सीटों पर सिमट गई. मामला विधानसभा में संख्या बल के सहारे सपा-बसपा ने बीजेपी को मात देते हुए जोड़ तोड़ कर सरकार बना ली. मुलायम सिंह दूसरी बार मुख्यमंत्री बने. सपा-बसपा गठबंधन ने चार दिसंबर 1993 को सत्ता की बागडोर संभाल ली. बसपा गठबंधन से पहले 8-10 सीटें जीती थी. 9193 में गठबंधन कर बसपा 67 सीटों पर पहुंच गई.

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गेस्ट हाउस कांड के बाद बढ़ गई दूरियां

बसपा सुप्रीमो कांशीराम ने पार्टी उपाध्यक्ष मायावती को उत्तर पर्देश की प्रभारी बना दिया. प्रदेश में प्रभारी बनते ही मायावती पूरा शासन परोक्ष रूप सेचलाने लगीं. मुलायम पर हुक्म चलाती थी. मुलायम को यह स्वीकार नहीं था. आपसी मनमुटाव के चलते 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से किनारा कर लिया और समर्थन वापसी की घोषणा कर दी. इस वजह से मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आकर गिर गई. इसके बाद 3 जून, 1995 को मायावती ने बीजेपी के साथ मिलकर सत्ता की बागडोर संभाली. .2 जून,1995 को उत्तर प्रदेश राजधानी लखनऊ में गेस्ट हाउस कांड हुआ. मायावती खुद कई बार कह चुकी हैं कि उस कांड को कभी वह नहीं भूल सकती हैं. कहा जाता है कि मायावती को ‘डराने’ के लिए 2 जून,1995 को स्टेट गेस्ट हाउस कांड करवाया गया. कथित तौर पर सपा के लोगों ने मायावती पर हमला किया और 12 बसपा विधायको को जबरन उठा कर ले गए. मायावती किसी तरह अपने आपको कमरे में बंद कर जान बचा पायी.

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