मानवता का संदेश देता है माह-ए-रमजान

लखनऊ: इस्लाम धर्म में अच्छा इन्सान बनने के लिए पहले मुसलमान बनना आवश्यक है और मुसलमान बनने के लिए बुनियादी पांच कर्तव्यों को अमल में लाना का अति आवश्यक है। यदि इन पाँचों में से किसी एक को व्यक्ति नहीं मानता है तो वह सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता है। क्या हैं यह पांच कर्तव्य (फराईज)-

ईमान यानी कलिमा तय्यब, जिसमें अल्लाह के परम पूज्य होने का इकरार, उसके एक होने का यकीन और मोहम्मद साहब के आखिरी नबी (दूत) होने का यकीन करना शामिल है। इसके अलावा बाकी चार हैं -नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात। इस्लाम के ये पांचों फराईज़ इन्सान को इन्सान से प्रेम, सहानुभूति, सहायता तथा हमदर्दी की प्रेरणा देते हैं। यदि कोई व्यक्ति मुसलमान होकर इस सब पर अमल न करे, तो वह अपने मजहब के लिए झूठा है।

खुद को खुदा की राह में समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना माह-ए-रमजान न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का महीना है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम भाईचारे और इंसानियत का संदेश भी देता है। इस पाक महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खजाना लुटाते हैं। इस बार माह-ए-रमजान 7 मई दिन मंगलवार से शुरू हो रहा है। आपको बता दें कि माह- ए- रमजान इस्लामी महीने में नौवां महीना होता है| यह महीना इस्लाम के सबसे पाक महीनों मैं शुमार किया जाता है। इस्लाम के सभी अनुयाइयों को इस महीने में रोजा, नमा, फितरा आदि करने की सलाह है। रमजान माह को तीन हिस्सों में बाँट दिया गया है| यह सभी हिस्से दस- दस दिन के होते हैं।

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कुरान के दूसरे पारे के आयत नंबर 183 में रोजा रखना हर मुसलमान के लिए जरूरी बताया गया है। रोज़े को अरबी में सोम कहते हैं, जिसका मतलब है रुकना। रोज़ा यानी तमाम बुराइयों से रुकना या परहेज़ करना। ज़बान से गलत या बुरा नहीं बोलना, आंख से गलत नहीं देखना, कान से गलत नहीं सुनना, हाथ-पैर तथा शरीर के अन्य हिस्सों से कोई नाजायज़ अमल नहीं करना। रोज़े की हालत में किसी व्यक्ति के लिए यह आज्ञा नहीं है कि वह अपनी पत्नी को भी इस नीयत से देखे कि उसके मन में कामवासना जगे। गैर औरत के बारे में तो ऐसा सोचना ही हराम है।

रोजा रखने वाले नियम कानून के मुताबिक, सूर्योदय से पूर्व उठकर ‘सहरी’ खाते हैं। सहर का अर्थ है भोर। अत: इस आहार का नाम सहरी है, जिसमें भोजन व तरल पदार्थ लिए जाते हैं। इसके बाद सूर्यास्त तक अन्न-जल पूरी तरह त्याग दिया जाता है, साथ ही आत्म-नियंत्रण के दूसरे नियम पालन करते हुए रोजेदार पांच वक्त की नमाज व कुरान पढ़ते हैं। शाम को सूर्यास्त के समय इफ्तार किया जाता है। रात के खाने के बाद तरावीह (अतिरिक्त नमाज) पढ़ी जाती है। लेकिन इसका प्रावधान अहले सुन्नत में है, शिया समुदाय में नहीं।

इबादत के साथ-साथ इस महीने मुसलमान जकात के रूप में अपनी आय का कुछ भाग गरीबों पर खर्च करते हैं। गरीबों को खाना खिलाते हैं, दान करते हैं और गरीबों से लेकर अपने अधीन काम करने वालों को नये कपड़े उपहार में देते हैं। इस महीने मुसलमान जिस तरह पूरे समर्पण से अल्लाह की इबादत करते हैं, उसी तरह दिल खोलकर पैसा भी खर्च करते हैं। यह व्यवस्था इसीलिए है ताकि समाज का निम्न वर्ग खाने व कपड़ों से वंचित न रह जाये। एक बच्चा जब वयस्क हो जाता है तो रोजा रखना उसके लिए अनिवार्य धार्मिक कर्त्तव्य हो जाता है। बच्चा जब पहला रोजा रखता है, तो इसे रोजा कुशाई कहते हैं| मां-बाप अपनी हैसियत के मुताबिक इस अवसर पर रिश्तेदारों व दोस्तों की दावत करते हैं व अन्य अनुष्ठानों की तरह बच्चे को उपहार दिये जातें हैं।

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