लखनऊ: अनुसूचित जाति-जनजाति अधिनियम में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद हुए संशोधन के तहत दर्ज मामलों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का एक अहम फ़ैसला आया है. अहम इसलिए क्योंकि इस निर्णय से और साफ़ हुआ है कि एससी/एसटी एक्ट के तहत गिरफ़्तारी को लेकर गलतफ़हमी फ़ैली हुई है.
लखनऊ बेंच ने 19 अगस्त को दर्ज एक एफ़आईआर रद्द करने की मांग वाली याचिका पर अपना निर्णय दिया है. अदालत ने इस निर्देश के साथ याचिका निस्तारित की है कि, अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में दो जुलाई 2014 को सुनाए फ़ैसले का पालन किया जाए.
इसके मुताबिक पुलिस अपरिहार्य मामले में ही अभियुक्त की गिरफ्तारी कर सकती है. उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने वाले गोन्डा निवासी राजेश मिश्र के खिलाफ पिछले दिनों तीन लोगों ने एससी/एसटी एक्ट के तहत मारपीट करने, जाति सूचक शब्द और गालियां बकने का मुकदमा दर्ज हुआ था. मिश्र अपनी गिरफ़्तारी के पुलिसिया प्रयास से परेशान थे. अब उच्च न्यायालय के निर्णय से उन्हें राहत मिलेगी क्योंकि जो आरोप उनपर हैं वो तत्काल गिरफ़्तारी की परिधि में नहीं आते. हां अगर मजिस्ट्रेट पुलिस के तर्क से सहमत होकर जरूरी समझे तो नोटिस जारी करके गिरफ़्तारी अवश्य हो सकती है. लेकिन, एससी/एसटी एक्ट के तहत हर आरोप पर बिना नोटिस गिरफ़्तारी नहीं हो सकती.
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राजसत्ता एक्सप्रेस के लीगल एडवाइज़र और वरिष्ठ अधिवक्ता चन्दन श्रीवास्तव ने हाईकोर्ट के फ़ैसले की रोशनी में एक्ट के प्राविधान को आसान शब्दों में समझाया है. चन्दन कहते हैं इस ‘गलतफहमी’ को दूर कर लीजिए कि एससी-एसटी एक्ट के तहत कोई मुकदमा दर्ज होते ही आपकी गिरफ्तारी हो सकती है.
मैं गारंटी देता हूं कि तुरंत गिरफ्तारी नहीं हो सकती. एससी-एसटी एक्ट के तहत जिन कृत्यों को अपराध माना गया है उनमें से मात्र तीन को छोड़कर बाकी किसी भी अपराध में पुलिस को आपको गिरफ्तार करने का अधिकार तब तक नहीं है जब तक मजिस्ट्रेट इसका आदेश पुलिस को न दे दे.
दरअसल एससी-एसटी एक्ट के तीन के अलावा बाकी सभी दांडिक प्रावधान सात साल तक के कारावास के ही हैं. सीआरपीसी की धारा- 41A के मद्देनजर अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई व्यवस्था के तहत जिन अपराधों में सात साल या उससे कम की सजा का प्रावधान है, उनमें पुलिस आरोपित व्यक्ति की गिरफ्तारी तत्काल नहीं करेगी.
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बल्कि उसे एक नोटिस भेजकर विवेचना अधिकारी तलब करेगा ताकि उसका पक्ष जाना जा सके. यदि नोटिस के बावजूद आरोपित हाजिर नहीं होता तो मजिस्ट्रेट के आदेश से ही गिरफ्तारी की जा सकती है और मजिस्ट्रेट को भी उन कारणों को दर्ज करना होगा जिनके आधार पर वह आरोपित की गिरफ्तारी का आदेश दे रहा है.
रह गई बात एससी-एसटी एक्ट के तहत उन तीन अपराधों की जिनके किए जाने के आरोप में एक गैर एससी-एसटी की गिरफ्तारी हो सकती है. तो एससी-एसटी एक्ट की धारा- 3(2)(i), 3(2)(iv) और 3(2)(v) के तहत आने वाले अपराध कुछ इस प्रकार हैं- ऐसी झूठी गवाही जो किसी एससी-एसटी वर्ग के व्यक्ति को फांसी की सजा दिलाने के मकसद से दी गई, इस वर्ग के प्रॉपर्टी या पूजा स्थल को बम से उड़ाना या जलाना और इस वर्ग के व्यक्ति के खिलाफ ऐसा अपराध करना जो आईपीसी में दस साल की सजा से दंडित हो.
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उपरोक्त तीन प्रकार के अपराध का आरोप यदि आप पर एससी-एसटी को छोड़िए एक सामान्य वर्ग का व्यक्ति भी लगाता है तो आपकी तत्काल गिरफ्तारी हो सकती है.सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में जो सबसे गलत बात थी वह थी एफआईआर दर्ज करने पर ही रोक लगा देना.
अदालत ने एफआईआर दर्ज करने के पहले जांच करने की बात कही थी जबकि ललिता कुमारी बनाम यूपी से लगाए कई केस लॉज हैं जिनमें स्वयं सुप्रीम कोर्ट संज्ञेय अपराध की शिकायत मिलने पर तत्काल एफआईआर करने का दिशानिर्देश दे चुका है. ऐसे में एससी-एसटी एक्ट के तहत एफआईआर करने पर ही कंडीशन लगा देने का फैसला तो ललिता कुमारी केस के ही विरुद्ध था.