नई दिल्ली: 14 नवंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को भारत की प्रशासनिक भाषा घोषित किया तब देश के लिए संविधान तैयार कर रही सभा दो गुटों में बंटी हुई थी. आजादी के बाद जब भारत का संविधान बनाया जा रहा था तो संविधान सभा में भारत की भाषा को लेकर जमकर बहस हुई. हिंदी बेल्ट के नेता चाह रहे थे कि हिंदी को भारत की शासकीय भाषा बना दिया जाना चाहिए. सेठ गोविंद दास और उस समय के युनाइटेड प्रोविंस(उत्तर प्रदेश) के कई नेता चाह रहे थे कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में हिंदी ने पूरे भारत को एकजुट करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है तो उसे शासकीय भाषा घोषित किया जाना चाहिए.
लेकिन दक्षिण के कई नेताओं की अगुवाई करते हुए टीटी कृष्णाचारी ने कहा था कि हमें पहले अंग्रेजी पसंद नही थी क्योंकि शेक्सपीयर और मिल्टन को हमें जबरदस्ती पढ़ाया जाता था जिसमें हमें कोई दिलचस्पी ही नही थी. यदि भारत की शाषकीय भाषा हिंदी को बना दिया गया तो जिस मजबूत केंद्र को हम बनाने जा रहे हैं उस पर हिंदी भाषी लोगों का दबदबा होगा और दक्षिण के लोगों को लगेगा की वो हिंदी भाषी केंद्र के गुलाम हैं.
दोनों पक्षों की बात सुनने के बाद 1948 में मुंशी आयंगर कमेटी ने हिंदी को प्रशासनिक भाषा घोषित करने की सिफारिश की साथ ही में ये भी सुझाया कि हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी 15 साल तक प्रशासनिक भाषा रहेगी.
हालांकि इससे उस समय तो हिंदी को शासकीय भाषा बनाने की बहस रुक गई लेकिन 15 साल बाद वो फिर एक उग्र रूप में वापिस आई. 15 साल गुजरने के बाद जब अंग्रेजी को भारत की प्रशासनिक भाषा के दायरे से हटाने का समय आया तो दक्षिण भारत में बवाल मच गया. हिंदी के खिलाफ लोगों ने आत्मदाह किया, दक्षिण में लोगों को लग रहा था कि उन पर हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है.
1965 में लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे जो खुद हिंदी के बड़े हिमायती माने जाते थे. दक्षिण में चल रहे आंदोलन से चिंतित सरकार में दक्षिण भारत से आने वाले दो मंत्रियों ने इस्तीफे की पेशकश कर दी थी. इस स्तर पर फैल रहे विरोध को रोकने के लिए शास्त्री की सरकार को मजबूर होना पड़ा और अंग्रेजी को प्रशासनिक भाषा के दायरे से हटाने का फैसला वापिस लेना पड़ा.
अब संविधान सभा की उस बहस को गुजरे हुए लगभग 70 साल हो चुके हैं वहीं तमिल में हुए विरोध को भी 50 से ज्यादा साल बीत चुके हैं. उसके बावजूद आज भी जब 14 नवंबर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है तो भी लोग दो इस पर दो गुटों में बंटे हुए नजर आते हैं. आज के दिन को देश में कुछ हिंदी दिवस के तौर पर मना रहे तो कुछ इसका विरोध कर रहे हैं. सत्ता में बैठी सरकारें हफ्ते भर लगभग सभी सरकारी संस्थानों में हिंंदी पखवाड़े का आयोजन करती हैं और लाखों रुपये खर्च करती हैं. लेकिन क्या फिलहाल हिंदी को इन पखवाड़ों की जरूरत है.
सरकार द्वारा हिंदी को प्रमोट करने के लिए 2018-19 के बजट में 75.45 करोड़ का आवंटन किया गया है जो पिछले बजट से लगभग 11 करोड़ ज्यादा है. वहीं भारतीय जनता पार्टी जिसके मुख्य वोटर हिंदी भाषी बेल्ट के हैं वो हिंदी के प्रमोशन के जरिए उन्हें प्रभावित करने की कोशिश कर रही है. इसी के चलते ये फैसला लिया गया था कि तमिलनाडू में सड़कों पर बने माइलस्टोन पर अंग्रजी की जगह हिंदी में नाम लिखे जाने चाहिए. हालांकि विरोध के बाद सरकार को अपना फैसला वापिस लेना पड़ा.
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इसी साल संसद के शीतकालीन सत्र में सुषमा स्वराज ने कहा था कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रशासनिक भाषा का दर्जा दिलवाने के लिए मोदी सरकार 400 करोड़ रुपये तक खर्च कर सकती है. कांग्रेस नेता शशी थरूर ने सरकार के इस फैसले का विरोध किया था और कहा था कि भविष्य में दक्षिण से भी कोई प्रधानमंत्री बन सकता है जो हिंदी भाषी नही है. वहीं हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा नही है और केवल प्रशासनिक भाषा है. ऐसे में उसे संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रशासनिक भाषा क्यों बनाया जाए.
न सिर्फ मोदी सरकार बल्कि कांग्रेस के समय भी हिंदी को बढ़ावा देने के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए थे. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस सरकार ने 2009 से 2013 तक 348.90 करोड़ रुपये खर्च किए थे.
यदि सरकार बार-बार हिंदी को वोट बैंक के लिए इस तरह इस्तेमाल करती रहेंगी तो दक्षिण और उत्तर भारत में स्थितियां तनावपूर्ण बनी रहेंगी और हिंदी को लेकर दक्षिण में कभी भरोसा नही आ पाएगा. इसलिए यदि भारत के संघीय ढ़ांचे को बचाए रखना है तो सरकारों को इस तरह के कदम उठाने से बचना चाहिए जिससे हिंदी थोपने पर बनी धारणा खत्म हो पाए.
दक्षिण राज्यों में कांग्रेस औऱ भाजपा को मिलने वाली नाकामियों के पीछे हिंदी एक अहम वजह है. हिंदी के खिलाफ हुए द्रविड़ आंदोलन की छाप आज भी दक्षिण भारत पर है. ऐसे में अब समय आ गया है कि हिंदी के राजनीतिक इस्तेमाल को खत्म किया जाना चाहिए और दक्षिण भारत को हिंदी की चिंता से मुक्त किया जाना चाहिए.