वर्तमान में, भारत में सरकारी नौकरियों में ‘लैटरल एंट्री’ (सीधी भर्ती) एक विवादास्पद विषय बन गया है। इसे लेकर चर्चा और बहस लगातार जारी है, लेकिन इस प्रणाली का इतिहास नेहरू के समय से चला आ रहा है।
लैटरल एंट्री का तात्पर्य उन पेशेवरों की नियुक्ति से है जो सीधे किसी विशेष पद के लिए बिना किसी प्रशासनिक पदानुक्रम के माध्यम से आते हैं। यह प्रक्रिया आमतौर पर उच्च स्तर के पदों के लिए की जाती है, जहां विशेषज्ञता और अनुभव महत्वपूर्ण होता है। हाल के वर्षों में, भारतीय प्रशासन में इस प्रणाली को लेकर विभिन्न मतभेद और चिंताएँ सामने आई हैं, जिसमें विशेष रूप से तर्क दिया जा रहा है कि यह पारंपरिक भर्ती प्रक्रिया के विपरीत है।
नेहरू युग में, लैटरल एंट्री का विचार व्यापक रूप से अपनाया गया था ताकि प्रशासनिक सुधार और विशेषज्ञता को बढ़ावा दिया जा सके। उस समय, यह तर्क किया गया था कि यह प्रणाली प्रशासन में नई दृष्टिकोण और दक्षता ला सकती है। इसके अंतर्गत, विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को सीधे प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया गया, ताकि वे अपनी विशिष्ट क्षमताओं का उपयोग कर सकें।
वर्तमान समय में, लैटरल एंट्री को लेकर कई चिंताएँ हैं। आलोचकों का कहना है कि यह प्रणाली पारंपरिक सेवाओं के मूल्यांकन और चयन की प्रक्रिया को कमजोर कर सकती है, और इससे संविदा की स्थिरता और कार्यशैली प्रभावित हो सकती है। इसके अलावा, यह प्रक्रिया अक्सर पारदर्शिता और समानता के मुद्दों को जन्म देती है, क्योंकि इसमें चयन की पारंपरिक प्रक्रिया से हटकर एक अलग दृष्टिकोण अपनाया जाता है।
हालांकि, समर्थकों का कहना है कि लैटरल एंट्री से प्रशासन में नई सोच और नवाचार को बढ़ावा मिलता है। उनका तर्क है कि विशेषज्ञता और व्यावसायिक अनुभव वाले व्यक्ति सीधे प्रशासनिक पदों पर आकर शासन की गुणवत्ता को सुधार सकते हैं।
इस तरह, लैटरल एंट्री आज भी एक विवादास्पद मुद्दा है, जिसे लेकर विभिन्न विचार और राय सामने आती रहती हैं। यह प्रणाली नेहरू के समय से चली आ रही है, लेकिन समय के साथ इसके प्रभाव और महत्व को लेकर विभिन्न दृष्टिकोण बने हुए हैं।