शारदा सिन्हा: लोकगायिका से कहीं बढ़कर, हमारी परंपरा और रस्मों की प्रतीक

शारदा सिन्हा का नाम सिर्फ एक प्रसिद्ध लोकगायिका के तौर पर नहीं लिया जाता, बल्कि वह हमारे समाज और संस्कृति के एक अभिन्न हिस्सा रही हैं। उनकी आवाज़ में वह जादू था, जो न सिर्फ छठ पूजा के गीतों में बसा हुआ है, बल्कि हर लोक पर्व, परंपरा, और त्योहार में गूंजता है। उनकी खनकती आवाज़ कानों में गूंजती है और वह हमेशा हमारी सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक रहेंगी।

छठ पूजा और शारदा सिन्हा का अटूट संबंध

भारत में जब भी छठ पूजा की बात होती है, तो शारदा सिन्हा का नाम स्वतः ही जुड़ जाता है। उनका “पहिले पहिले हम कईलीं, छठी मैया बरत तोहार” गीत आज भी हर घर में गाया जाता है। यह गीत न केवल उनकी गायन शैली का प्रतीक है, बल्कि उनकी गायकी ने छठ पूजा को एक नई पहचान भी दी है। उनके इस गीत की धुन की पवित्रता और लोकप्रियता ऐसी है कि इसे सैकड़ों लोक गायकों ने अपने तरीके से गाकर नाम और पैसा तो कमाया ही, साथ ही इस गीत की महिमा को भी बढ़ाया।

शारदा सिन्हा की गायकी ने छठ पूजा के महत्व को घर-घर में पहुंचाया। उनके गीतों में न केवल पूजा का भाव है, बल्कि एक गहरी श्रद्धा और आस्था भी महसूस होती है।

संगीत से जुड़ी चुनौतियां और शारदा सिन्हा का संघर्ष

शारदा सिन्हा के लिए संगीत के रास्ते में कई कठिनाइयाँ आईं। 10-11 साल की उम्र में उन्होंने संगीत सीखना शुरू किया, जबकि उस वक्त समाज में संगीत को एक गंभीर पेशे के तौर पर नहीं देखा जाता था। खासकर महिलाएं, जो गाने-बजाने के क्षेत्र में कदम रखती थीं, उन्हें ताने सुनने पड़ते थे। ऐसे में शारदा सिन्हा के पिता ने उन्हें पूरा सहयोग दिया, जो शिक्षा विभाग में नौकरी करते थे। उन्होंने अपनी बेटी को अपनी पसंद के रास्ते पर चलने की पूरी छूट दी, जिसका नतीजा था कि शारदा सिन्हा ने संगीत में अपनी पहचान बनाई।

म्यूजिक और गायकी के लिए समाज में स्वीकार्यता हासिल करना आसान नहीं था, लेकिन शारदा सिन्हा ने न सिर्फ अपनी गायकी में निपुणता हासिल की, बल्कि लोक संगीत की शुद्धता को भी बरकरार रखा। उनकी गायकी ने यह साबित कर दिया कि लोक संगीत को भी गंभीर और सम्मानजनक जगह मिल सकती है।

लोक संगीत के लिए शारदा सिन्हा का योगदान

उनके संगीत में वह मिठास थी, जो सीधे दिल में उतर जाती थी। यह बहुत बड़ा योगदान था, क्योंकि उस समय लोकगीतों को “सेमी क्लासिकल” या “पारंपरिक” समझकर हल्के-फुल्के गीतों से जोड़ने की कोशिश की जाती थी। शारदा सिन्हा ने लोक संगीत को एक नई दिशा दी और उसे सम्मान दिलाया। उन्होंने साबित किया कि लोक संगीत केवल एक पारंपरिक रूप नहीं, बल्कि एक जीवित और संवेदनशील कला है, जिसे हर पीढ़ी से जोड़ना जरूरी है।

यह सच है कि आजकल के भोजपुरी गीतों में अश्लीलता और द्विअर्थी शब्दों की भरमार देखने को मिलती है, लेकिन शारदा सिन्हा जैसे कलाकारों ने लोक संगीत की शुद्धता को बनाए रखा। उन्होंने अपनी आवाज़ और गीतों के माध्यम से लोक संगीत की गरिमा और शुद्धता को जीवित रखा।

शारदा सिन्हा की अमरता

शारदा सिन्हा का योगदान न केवल लोक संगीत में था, बल्कि वह भारतीय संस्कृति, परंपरा, और त्योहारों का भी एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी हैं। छठ पूजा के दौरान जब उनके गीत गाए जाते हैं, तो उनकी आवाज़ में वह दिव्यता और श्रद्धा होती है, जो हमें हमारे संस्कारों और परंपराओं से जोड़ती है।

भारत सरकार ने शारदा सिन्हा को उनके संगीत के लिए पद्मभूषण जैसे सम्मान से नवाजा, जो उनके योगदान का प्रमाण है। जब तक हमारे समाज में “दुआर”, “पाहुन”, “अमुवा” जैसे शब्द रहेंगे, तब तक शारदा सिन्हा की यादें और उनके गीत जीवित रहेंगे। शादी-ब्याह की रस्मों में “हल्की”, “मंटमंगरा”, “इमली घोंटाने” जैसी परंपराएं रहेंगी, तब तक शारदा सिन्हा की आवाज़ हमारे दिलों में गूंजती रहेगी।

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