नई दिल्ली: कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले के कडाबा तालुका के रहने वाले हैदर अली द्वारा दायर की गई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। यह याचिका कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा मस्जिद में ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने के आरोप में दर्ज केस रद्द किए जाने के खिलाफ थी। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल मामले में कोई आदेश देने से मना कर दिया और कर्नाटक सरकार से जवाब तलब करने की बात कही है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता से कहा कि वह याचिका की कॉपी कर्नाटक सरकार को सौंपे। इसके बाद जनवरी में मामले पर सुनवाई होगी।
इस मामले में याचिकाकर्ता के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत्त कामत ने अदालत में अपनी बात रखी। उन्होंने कोर्ट से कहा कि मस्जिद में इस तरह के नारे लगाना सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश है और यह दूसरे धर्म के स्थल में घुसकर धर्म को धमकाने जैसा है। इस पर सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने जिज्ञासा व्यक्त की और पूछा कि क्या धार्मिक नारा लगाना अपराध हो सकता है। यह सवाल कोर्ट के सामने इस मुद्दे को और भी जटिल बना देता है।
मामला क्या था?
यह विवाद 13 सितंबर को शुरू हुआ, जब कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ जिले में स्थित एक मस्जिद में दो व्यक्तियों—कीर्तन कुमार और सचिन कुमार—ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए थे। इसके बाद इनके खिलाफ आईपीसी की धारा 447 (अवैध प्रवेश), 295 A (धार्मिक भावना भड़काने वाली हरकत), और 506 (धमकी देना) के तहत मामला दर्ज किया गया था। आरोप था कि इन लोगों ने एक धार्मिक स्थल पर नारेबाजी करके सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने की कोशिश की थी।
कर्नाटक हाई कोर्ट का निर्णय
इस घटना के बाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। 13 सितंबर को, कर्नाटक हाई कोर्ट के जस्टिस नागप्रसन्ना की बेंच ने इस मामले में एफआईआर रद्द कर दी। कोर्ट ने कहा कि इलाके में पहले से ही लोग सांप्रदायिक सौहार्द के साथ रह रहे हैं और दो व्यक्तियों द्वारा नारे लगाए जाने से पूरे इलाके में किसी प्रकार की धार्मिक भावना का आहत होना साबित नहीं होता। कोर्ट ने यह भी कहा कि इसे दूसरे धर्म का अपमान नहीं माना जा सकता और इस आधार पर एफआईआर को रद्द कर दिया था।
हालांकि, हैदर अली और उनके समर्थकों का कहना था कि इस तरह के नारे केवल सांप्रदायिक तनाव को बढ़ाने का काम करते हैं। उनका आरोप था कि यह हरकत मस्जिद के अंदर जाकर धर्म का अपमान करने की कोशिश थी, जिससे सामाजिक शांति भंग हो सकती है। इसके बाद इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी, जिसके बाद इस पर सुनवाई शुरू हुई।
सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ?
सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस पंकज मिथल और संदीप मेहता की बेंच ने याचिकाकर्ता से पूछा कि क्या इस मामले को अपराध के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। उन्होंने विशेष रूप से यह सवाल किया कि जब नारे लगाने का कोई सीधा असर न हो, तो यह कैसे माना जा सकता है कि यह एक अपराध है? इस पर कामत ने कोर्ट को बताया कि इस मामले में सीआरपीसी की धारा 482 का गलत इस्तेमाल हुआ है। उनका कहना था कि जब तक जांच पूरी नहीं हुई थी, तब तक हाई कोर्ट द्वारा एफआईआर रद्द कर देना उचित नहीं था।
क्या है सीआरपीसी की धारा 482?
सीआरपीसी की धारा 482 का इस्तेमाल उच्च न्यायालय से जुड़ा हुआ है। यह अदालत को किसी मामले में शक्ति देती है कि वह किसी भी मामले को पूरी तरह से खारिज कर सकती है, अगर वह उसे पूरी तरह से गलत या आधारहीन पाती है। कामत का कहना था कि यहां इस धारा का इस्तेमाल गलत तरीके से किया गया है क्योंकि जांच पूरी नहीं हुई थी और पुलिस ने आरोपी के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं जुटाए थे।
क्या हो सकता है आगे?
सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल कर्नाटक सरकार से जानकारी लेने का आदेश दिया है। जनवरी में मामले की अगली सुनवाई होगी, तब अदालत यह तय करेगी कि क्या मामले में आगे की कार्रवाई होनी चाहिए या नहीं। इस बीच, यह मामला समाज के विभिन्न वर्गों में चर्चा का विषय बना हुआ है, क्योंकि धार्मिक भावनाओं से जुड़े मामलों में कोर्ट का निर्णय हमेशा महत्वपूर्ण होता है।
यह मामला न केवल कर्नाटक में, बल्कि पूरे देश में सांप्रदायिक सौहार्द और धार्मिक स्वतंत्रता के विषय में बहस को जन्म दे सकता है। क्या किसी धार्मिक स्थल में इस तरह की घटनाओं को अपराध मानना चाहिए? क्या नारेबाजी को कानून की दृष्टि से अपराध माना जा सकता है? इन सवालों का उत्तर आने वाली सुनवाई में मिल सकता है।