दिल्ली के विधानसभा चुनावों का शंखनाद हो चुका है। 5 फरवरी को वोट डाले जाएंगे और 8 फरवरी को नतीजे आएंगे। आज दिल्ली में हर कोई आम आदमी पार्टी (AAP) और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच होने वाले मुख्य मुकाबले को लेकर चर्चा कर रहा है। वहीं, कांग्रेस भी अपने आप को इस लड़ाई में शुमार करने की कोशिश कर रही है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि दिल्ली में पहले विधानसभा चुनाव के वक्त कांग्रेस का ही दबदबा था और बाकी किसी पार्टी का नामोनिशान तक नहीं था?
तो आइए, जानें दिल्ली के पहले चुनाव की कहानी, जो 1952 में हुआ था, और उस वक्त के राजनीति के रोमांचक मोड़ के बारे में।
दिल्ली के पहले विधानसभा चुनाव की पृष्ठभूमि
दिल्ली की विधानसभा का गठन 17 मार्च 1952 को पार्ट-सी राज्य सरकार अधिनियम-1951 के तहत किया गया था। इसके बाद, विधानसभा चुनाव हुए और पहली सरकार बनी। लेकिन 1 अक्टूबर 1956 को दिल्ली विधानसभा का उन्मूलन कर दिया गया। इसके बाद, सितंबर 1966 में दिल्ली में मेट्रोपोलिटन काउंसिल का गठन किया गया, जिसमें 56 निर्वाचित और 5 मनोनीत सदस्य होते थे। इसके बाद दिल्ली में विधानसभा चुनावों का सिलसिला बंद हो गया।
साल 1991 में संविधान में 69वां संशोधन कर दिल्ली के लिए विधानसभा की व्यवस्था फिर से शुरू की गई और 1992 में परिसीमन हुआ। 1993 में फिर से विधानसभा चुनाव हुए और सरकार बनी। तब से दिल्ली में नियमित विधानसभा चुनाव होते आ रहे हैं।
दिल्ली में पहला चुनाव, 1952
दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव 1952 में हुआ था। उस समय दिल्ली विधानसभा की कुल 48 सीटें थीं, जबकि आज यह संख्या 70 है। उस वक्त भारतीय जनता पार्टी (BJP) का तो कोई अस्तित्व था ही नहीं, और राजनीति में कांग्रेस का ही एकछत्र राज था। कांग्रेस ने पहले चुनाव में 48 में से 36 सीटों पर कब्जा किया था, यानी 75% सीटें कांग्रेस के खाते में गईं। यह भी उल्लेखनीय है कि चुनाव में 58.52% मतदाताओं ने वोट डाले थे, जिनमें से 52% वोट सिर्फ कांग्रेस को मिले थे।
छह सीटों पर दो-दो विधायक
दिल्ली के पहले विधानसभा चुनाव में कुछ दिलचस्प घटनाएं हुईं। छह सीटें ऐसी थीं, जिन पर दो-दो विधायक चुने गए थे। ये सीटें थीं—रीडिंग रोड, रहगर पुरा देव नगर, सीताराम बाजार तुर्कमान गेट, पहाड़ी धीरज बस्ती जुलाहा, नरेला और मेहरौली। इन सीटों पर उम्मीदवारों की संख्या इतनी अधिक थी कि यहां से दो-दो विधायक चुने गए थे। खास बात यह थी कि रीडिंग रोड सीट पर जनसंघ के उम्मीदवार अमीन चंद और कांग्रेस के प्रफुल्ल रंजन दोनों ने जीत हासिल की थी। पहले चुनाव में छह सीटों पर 12 विधायकों के जीतने की यह कहानी थोड़ी अजीब जरूर थी, लेकिन यह दिल्ली के पहले चुनाव का एक अनोखा पहलू था।
चौधरी ब्रह्म प्रकाश: एक्सीडेंटल सीएम
दिल्ली के पहले चुनाव में कांग्रेस की भारी जीत के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चौधरी ब्रह्म प्रकाश को बैठाया गया था। हालांकि, कहा जाता है कि ब्रह्म प्रकाश का मुख्यमंत्री बनना पूरी तरह से एक ‘एक्सीडेंट’ था। असल में, कांग्रेस पहले देशबंधु गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी, लेकिन एक हादसे में उनकी मौत के बाद पंडित नेहरू ने ब्रह्म प्रकाश को यह जिम्मेदारी सौंप दी।
चौधरी ब्रह्म प्रकाश का जन्म हरियाणा के रेवाड़ी में हुआ था और उनका जीवन बहुत साधारण था। वे खुद को एक सादा जीवन जीने वाला व्यक्ति मानते थे और मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कभी मुख्यमंत्री आवास में रहना जरूरी नहीं समझा। उनका मानना था कि जनता के बीच रहकर उनकी समस्याएं समझना और हल करना उनका सबसे बड़ा धर्म है। मुख्यमंत्री के पद से हटने के बाद भी वे सरकारी बस में यात्रा करते थे, जिससे उनकी सादगी को लेकर उनका कद और भी बढ़ गया था। इसी सादगी के कारण उन्हें ‘शेर-ए-दिल्ली’ और ‘मुगल-ए-आजम’ की उपाधि मिली।
1993 में बनी पहली बार भाजपा सरकार
दिल्ली में कांग्रेस का ही कब्जा था, लेकिन लंबे समय तक इस हालात के बाद 1993 में भाजपा ने दिल्ली में सरकार बनाई। इसके बाद दिल्ली की राजनीति में कई बदलाव आए, खासकर शीला दीक्षित की अगुवाई में कांग्रेस ने तीन बार दिल्ली में सरकार बनाई। इसके बाद 2013 में आम आदमी पार्टी (AAP) के नेता अरविंद केजरीवाल ने पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। हालांकि, उनकी सरकार 50 दिन में ही गिर गई और 14 फरवरी 2015 को केजरीवाल फिर से मुख्यमंत्री बने। 2020 में एक बार फिर से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में चुनावी जीत दर्ज की।
दिल्ली में पूर्ण राज्य का दर्जा
दिल्ली में हमेशा से यह मुद्दा उठता आया है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलना चाहिए, ताकि दिल्ली विधानसभा के पास कानून बनाने का अधिकार हो। हालांकि, अब तक यह सपना पूरा नहीं हो सका है और दिल्ली विधानसभा के पास कुछ अधिकारों की कमी है।
अब, दिल्ली में चुनावी सरगर्मियाँ तेज़ हो चुकी हैं और सभी पार्टियाँ एक-दूसरे से मुकाबला करने के लिए तैयार हैं।