महाड़ तालाब आंदोलन: जब डॉ. आंबेडकर ने जलाया था मनुस्मृति, जानिए इसका इतिहास

नई दिल्ली: हाल ही में काशी हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) फिर सुर्खियों में है, जहां भगत सिंह छात्र मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने मनुस्मृति की प्रतीकात्मक प्रति जलाने की कोशिश की। इस घटना ने एक बार फिर मनुस्मृति दहन दिवस को चर्चा में ला दिया है, जिसे हर साल 25 दिसंबर को मनाया जाता है। 97 साल पहले महाड़ सत्याग्रह के दौरान डॉ. भीमराव आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाकर समाज में जातिवाद और भेदभाव का विरोध किया था। आज भी यह आंदोलन समाज में समानता और अधिकारों की लड़ाई की याद दिलाता है। आइए जानते हैं कि महाड़ सत्याग्रह क्या था और क्यों डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाने का फैसला लिया था।
महाड़ सत्याग्रह, जिसे चावदार तालाब सत्याग्रह भी कहा जाता है, 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले (तत्कालीन कोलाबा) के महाड़ में हुआ था। यह आंदोलन डॉ. भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में हुआ और इसका उद्देश्य दलित समुदाय को सार्वजनिक चावदार तालाब से पानी पीने का अधिकार दिलाना था। उस समय महाड़ के चावदार तालाब का पानी केवल ऊंची जातियों के लिए था, जबकि दलितों को इस तालाब से पानी पीने की इजाजत नहीं थी। इस आंदोलन के माध्यम से आंबेडकर ने यह संदेश दिया कि दलितों को समाज में बराबरी का हक मिलना चाहिए

आंबेडकर ने क्या कहा था?

महाड़ सत्याग्रह का आयोजन आंबेडकर ने इसलिए किया था ताकि दलितों को सार्वजनिक जगहों पर समान अधिकार मिल सके। इस सत्याग्रह का एक खास पहलू यह था कि आंबेडकर ने सबसे पहले खुद चावदार तालाब से पानी पीकर यह साबित किया कि दलित भी इंसान हैं और उन्हें किसी भी सार्वजनिक सुविधा का उपयोग करने का अधिकार है। उन्होंने कहा था, “क्या हम यहां इसलिए आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है? नहीं! हम यहां आए हैं ताकि हम इंसान होने का हक जताएं।”
महाड़ सत्याग्रह के बाद, 25 दिसंबर 1927 को डॉ. आंबेडकर ने एक और ऐतिहासिक कदम उठाया, जो आज भी लोगों के जेहन में ताजा है। इस दिन उन्होंने मनुस्मृति को सार्वजनिक तौर पर जलाया। आंबेडकर का मानना था कि मनुस्मृति समाज में जातिवाद और सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा देती है, और यह ग्रंथ दलितों और महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को उचित ठहराता है। आंबेडकर के अनुसार, मनुस्मृति ने उन शोषण और असमानता की प्रथाओं को बढ़ावा दिया, जो समाज के निचले तबके को दबाने और भेदभाव करने के लिए जिम्मेदार थीं।

कैसे जलाया गया मनुस्मृति?

महाड़ में 25 दिसंबर 1927 को एक खास आयोजन किया गया था। ब्राह्मण समाज के प्रतिनिधि गंगाधर नीलकंठ सहस्त्रबुद्धे ने मनुस्मृति के श्लोकों और उसकी सामाजिक समस्याओं पर चर्चा की। इसके बाद महाड़ में एक विशेष वेदी बनाई गई, जिसमें 6 इंच गहरा और 1.5 फुट चौकोर गड्ढा खोदा गया था। इस गड्ढे में चंदन की लकड़ी रखी गई थी। फिर आंबेडकर और उनके साथ मौजूद 6 दलित साधुओं ने मनुस्मृति के एक-एक पन्ने को फाड़कर आग में डालना शुरू किया। यह घटना इतिहास में एक मील का पत्थर बन गई, और आज भी इसे मनुस्मृति दहन दिवस के रूप में मनाया जाता है।
मनुस्मृति दहन दिवस 25 दिसंबर को मनाना केवल एक प्रतीकात्मक कार्य नहीं है, बल्कि यह एक संविधान निर्माता डॉ. आंबेडकर के दृष्टिकोण और उनके जातिवाद के खिलाफ संघर्ष को याद करने का दिन है। यह दिन यह याद दिलाता है कि समाज में समानता, भाईचारे और न्याय की आवश्यकता है। मनुस्मृति के जलाने का मतलब केवल एक ग्रंथ का दहन नहीं था, बल्कि यह उस समय की जातिवादी मानसिकता के खिलाफ एक ठोस विरोध था। यह दिन सामाजिक न्याय और मानवाधिकार की लड़ाई का प्रतीक बन गया है।

महाड़ सत्याग्रह और मनुस्मृति जलाने का प्रभाव

महाड़ सत्याग्रह और मनुस्मृति जलाने की घटना ने भारतीय समाज के दलित वर्ग को एक नई ताकत दी। इससे यह संदेश गया कि दलितों को भी सम्मान, अधिकार और सम्मानजनक जीवन जीने का हक है। डॉ. आंबेडकर ने इस आंदोलन के जरिए समानता की लड़ाई का बिगुल बजाया था, और यही कारण है कि आज भी मनुस्मृति दहन दिवस पर इस संघर्ष की अहमियत को समझा जाता है।
महाड़ सत्याग्रह और मनुस्मृति दहन की घटना ने ना केवल भारत के दलित समाज को बल्कि पूरे देश को यह सिखाया कि सामाजिक असमानता और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष जरूरी है। यह घटना हमें यह याद दिलाती है कि समानता और मानवाधिकार के लिए संघर्ष हर किसी का हक है।

BHU में मनुस्मृति जलाने की कोशिश

हाल ही में BHU में भगत सिंह छात्र मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने मनुस्मृति की प्रतीकात्मक प्रति जलाने की कोशिश की, जिससे इस ऐतिहासिक दिन की याद ताजा हो गई। हालांकि, जैसे ही प्राक्टोरियल बोर्ड को इसकी सूचना मिली, वह तुरंत मौके पर पहुंच गया। इससे पहले कि स्थिति बिगड़ती, छात्रों ने धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया। भगत सिंह छात्र मोर्चा का कहना था कि वे 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहन दिवस पर चर्चा कर रहे थे, जब यह घटना घटी।
यह घटना दिखाती है कि आज भी डॉ. आंबेडकर के जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ आंदोलन की याद और उनका संघर्ष सामाजिक और राजनीतिक विमर्श में ज़िंदा है।

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