[उज्जवल त्रिवेदी]अगर कोई अपनी ऑटोबायोग्राफी का नाम खुल्लम-खुल्ला रखें और खासकर तब जब वो ऐसी दुनिया से ताल्लुक रखता हो जहां सारा खेल इमेज का होता है, जहां लोग अपनी बनावट की छवि का इस्तेमाल लोकप्रियता पाने के लिए करते हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वो इंसान कितना बेबाक होगा-कितना बेफिक्र होगा। कुछ ऐसे ही थे ऋषि कपूर, अपनी बात साफ कहना और खुलकर कहना। हाल ही में उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा था कि कोरोना संकट के लॉकडाउन में शराब की दुकानें खोल देनी चाहिए क्योंकि इससे लोगों को अपना दिल हल्का करने का मौका मिलेगा। अब, आप ही बताइए कौन सा ऐसा सितारा है बॉलीवुड में जो हमारे समाज में शराब जैसी चीज़ पर इस तरह की बात खुलकर अपनी बात रखने की हिम्मत रखता है। यह एक छोटा सा उदाहरण है समझने के लिए कि ऋषि कपूर का व्यक्तित्व कैसा था।
फ़िल्म के बारे में सुनकर आटोग्राफ देने की प्रैक्टिस कर डाली
मैंने जब उनकी ऑटो बायोग्राफी ‘खुल्लम-खुल्ला’ पढ़ी तो उसमें एक मजेदार किस्से का जिक्र है। वो ये कि जब पहली बार तंगी की हालत में राज कपूर ने अपने बेटे ऋषि कपूर को बॉलीवुड में बतौर हीरो लॉन्च करने की बात सोची और उनको बताया तो पिता की बात सुनकर ऋषि कपूर साहब सीधे अपने कमरे में गए और ऑटोग्राफ देने की प्रैक्टिस करने लगे। दरअसल बचपन से उनका सपना एक फिल्मी कलाकार बनना, और जब बॉलीवुड में शुरुआत हुई तो पहली फिल्म ही सुपर डुपर हिट हो गई। वो रातोंरात स्टार बन गए, ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में साफ लिखा है कि उस कामयाबी ने उनका दिमाग खराब कर दिया था। वो खुद को वाकई बहुत बड़ा स्टार समझने लगे थे। आत्मकथा में इस स्वीकारोक्ति से ही साबित होता है कि वो दिल के किस कदर साफ थे, उन्होंने दिल में छिपाकर कुछ भी नहीं रखा। जैसा सोचा- जैसा समझा उसको साफ तरीके से ज़ाहिर किया। अपने आप में ही एक ऐसा गुण है जो आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है खासकर उन लोगों में जो कि इमेज के बिजनेस में होते हैं।
खाने-पीने का शौकीन अभिनेता जिसे चिढ थी हिप्पोक्रेसी से
मुझे याद है एक फिल्मी पार्टी अटेंड करने के लिए पहुंचे ऋषि कपूर जब अपनी गाडी से उतरे तो उनके हाथ में गिलास था, अब यह कहने की जरूरत नहीं है कि उस गिलास में क्या था। तो सितारे जहां पार्टी में आने के बाद इंजॉय करना शुरू करते हैं ऋषि कपूर इतने जिंदादिल थे कि मूड बनाने पर वो अपने घर से ही शुरु हो जाते थे। जिस पार्टी में शरीक होने के लिए वो मई गिलास पहुंचे और जिसका गवाह मैं खुद रहा -वो ये बताने के लिए काफी है कि ऋषि कपूर किस सोच के इंसान थे और कितने जिंदादिल थे। दोहरा चरित्र या हिप्पोक्रेसी से उन्हें सख्त नफ़रत थी। ऋषि कपूर जिन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री चिंटू जी के नाम से पुकारती थी, खाने-खिलाने के बेहद शौक़ीन रहे। वो यारों के यार थे और खुलकर जीने में यकीन रखते थे। शायद यही वजह थी कि जो उनके करीब गया वो मुस्कुराता हुआ ही लौटा।
राजकपूर रात को जलाते थे एक ख़ास अगरबत्ती
ऋषि कपूर ने अपनी ऑटोबायोग्राफी में एक जगह बताया है कि उनके पिता राज कपूर एक खास तरह की अगरबत्ती रात में जलाया करते थे जिससे नींद अच्छी आती है, उनका मानना था कि नींद अच्छी आएगी तो सपने अच्छे देखोगे और सपने अच्छे होंगे तो फिर पूरे भी होनेग।ऐसी तमाम छोटी-छोटी बातों का जिक्र उन्होंने अपनी किताब खुल्लम-खुल्ला में किया है जो ना सिर्फ हमें यह बताती हैं कि आप जो हैं उसे स्वीकार करें – क्योंकि आप अपने आप में अलग हैं। यूनीक हैं और आपमें जो खासियत है वह यही है कि ऊपर वाले ने आपको सबसे अलग बनाया है। दरअसल आज जरूरत हमें यही सीखने की है कि हम किसी बनावटीपन में ना उलझे बल्कि सीधे और सरल बने। मतलब जैसा सोचे जैसा समझे वैसा ही बोले भी। ऋषि कपूर ने अपनी किताब में साफ लिखा है कि वह खुद को लकी मानते थे कि उनका जन्म कपूर परिवार में हुआ, उन्होंने उस पुराने से छोटे घर का जिक्र भी किया है जो मुंबई के माटुंगा इलाके में था और जहां अक्सर लोगों का मेला लगा रहता था। आने जाने वाले लोगों में महान फिल्मकार के आसिफ जैसे लोग भी शामिल थे। ऋषि कपूर ने लिखा है कि भारतीय सिनेमा को करीब 100 साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है जिसमें से करीब 90 साल कपूर परिवार ने फिल्म उद्योग की सेवा की है।
गुरुदेव टैगोर ने दिलवाई थी दादा को पहली फ़िल्म
बहुत कम लोग जानते हैं कि थिएटर के दिनों में ऋषि कपूर के दादाजी यानी पृथ्वीराज कपूर ने दुर्गा खोटे के साथ ‘सीता’ नाम का एक थिएटर किया था, जिसमें वह राम बने थे और इस थिएटर को देखने खुद रविंद्र नाथ टैगोर आए थे। टैगोर वह पृथ्वीराज कपूर की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए थे,इसके बाद रविंद्र नाथ टैगोर की सिफारिश पर ही उनके दोस्त बीएन सरकार ने ‘सीता’ फिल्म बनाई और इसमें पृथ्वीराज कपूर को कास्ट किया गया। यह फिल्म एक बहुत बड़ी ब्लॉकबस्टर बनी और कपूर खानदान की शुरुआत भारतीय फिल्म उद्योग में इसी फ़िल्म के ज़रिये हुई। कम लोग जानते हैं कि पृथ्वीराज कपूर वह पहले कलाकार थे जिन्होंने ब्लैक मनी लेने से इनकार कर दिया था, उनका कहना था कि कला के बदले मिलने वाला मेहनताना ब्लैक मनी का नहीं हो सकता। अपनी किताब में ऋषि कपूर ने अपने दादा की इन बातों को जिस प्रमुखता से उकेरा है वो साबित करता है कि ऋषि कपूर स्वयं इस बेबाकी और पवित्रता के प्रतीक थे। मुझे लगता है कि ऋषि कपूर के व्यक्तित्व में बेबाकी और साफगोई उनके दादाजी के गुणों की ही दें थी।
जब एक सीन के लिए खाने पड़े थे नौ थप्पड़
ऋषि कपूर ने ‘खुल्लम खुल्ला’ में बताया है कि वह जब सेट पर अपने पापा से मिलने जाते थे तो उनके मेकअप के साथ खेलने लगते, ऋषि कपूर के चाचा शशि कपूर को पहले से ही अंदाजा था कि उनका यह भतीजा एक ना एक दिन फिल्मों में बड़ा कलाकार जरूर बनेगा। ज़ाहिर है ऋषि कपूर को बचपन से ही फिल्मी माहौल मिला राज कपूर और पृथ्वीराज कपूर जैसे दिग्गजों का साथ मिला। वहीं घर में आने-जाने वाले सभी लोग फिल्म से जुड़े होते थे इसलिए उन्होंने खुद से हमेशा यही उम्मीद रखी कि वो खुद भी फिल्म इंडस्ट्री का ही हिस्सा बनेंगे। फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ से जुड़ा एक मजेदार किस्सा यह है इसमें एक सीन है जिसमें ऋषि कपूर को अपनी मां से थप्पड़ खाना है, असल में ऋषि कपूर को 9 बार उस सीन के रीटेक देने पड़े थे और हर बार उन्हें अपने गाल पर जोर का तमाचा सहना पड़ा। पापा राज कपूर ने उस सीन को तब तक रीटेक करवाया जब तक कि वह संतुष्ट नहीं हो गए। ऋषि कपूर ने लिखा है कि एक कलाकार के तौर पर यही सबसे बड़ी सीख थी कि जब तक परफेक्शन ना आ जाए सीन को फाइनल नहीं करना है।
‘बॉबी’ की सफलता ने दिमाग खराब कर दिया था
अपनी पहली हिट फ़िल्म ‘बॉबी’ को मिली कामयाबी याद करते हुए ऋषि कपूर ने लिखा है कि 20 साल की उम्र में मिली कामयाबी ने मेरा दिमाग खराब कर दिया था, और जैसे ही उसके बाद मेरी अगली फिल्म ‘जहरीला इंसान’ फ्लॉप हुई मेरा सारा बुखार उतर गया, अगर आप ऋषि कपूर की लिखी इस किताब को पढ़ेंगे तो उनका व्यक्तित्व शीशे की तरह साफ दिखाई देगा। और आप इस बात से बिलकुल मुतमईन हो जाएंगे कि ऋषि कपूर कि ज़िन्दगी का फलसफा उनकी ज़िन्दगी में शीशे की तरह साफ था। और वो ये कि ज़िंदगी में बनावट नहीं रखनी चाहिए। जितना जियो खुलकर जियो और ऋषि कपूर ने आखिर तक ऐसी ही किंग साइज़ लाइफ जीकर दुनिया को अलविदा कहा।