Friday, June 13, 2025

इलाहाबाद हाई कोर्ट का 12 जून का वो फैसला जिससे बदल गई सियासत, देश ने भुगता आपातकाल…

12 जून 1975, ये वो तारीख है जिसने भारत की सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया। उस दिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने न सिर्फ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कुर्सी हिलाई, बल्कि देश की राजनीति का नक्शा ही बदल डाला। उस वक्त तक कांग्रेस का एकछत्र राज था, केंद्र हो या राज्य, हर जगह उसका दबदबा। लेकिन इस दिन जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के रायबरेली से लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया और उन्हें अगले छह साल तक कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। ये खबर जंगल में आग की तरह फैली और इसके बाद जो हुआ, उसने भारत के लोकतंत्र को झकझोर दिया।

इंदिरा की कुर्सी पर संकट

12 जून की सुबह इंदिरा गांधी के लिए एक के बाद एक बुरी खबरें लेकर आई। सबसे पहले उनके करीबी सलाहकार और सोवियत रूस में भारत के राजदूत दुर्गा प्रसाद धर की दिल का दौरा पड़ने से मौत की खबर। फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट का वो ऐतिहासिक फैसला, जिसने उनकी सियासी जमीन खिसका दी। और ऊपर से गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों के रुझान, जो कांग्रेस के खिलाफ जा रहे थे। इन तीन खबरों ने इंदिरा को हिलाकर रख दिया। उनकी जीवनी लिखने वाली पुपुल जयकर बताती हैं कि उस सुबह इंदिरा नाश्ते की मेज पर बैठी थीं, जब उनके निजी सचिव आरके धवन ने धर की मौत की खबर दी। इंदिरा धर के घर श्रद्धांजलि देने गईं, लेकिन वहां से लौटते ही उन्हें कोर्ट के फैसले और गुजरात के रुझानों ने और परेशान कर दिया।

कोर्ट में क्या हुआ?

इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर सुनवाई की। राजनारायण ने 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की रायबरेली सीट से जीत को चुनौती दी थी। उनका आरोप था कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया और भ्रष्ट तरीके अपनाए। जस्टिस सिन्हा ने इस मामले को गंभीरता से लिया। सुनवाई साढ़े तीन साल तक चली। इस दौरान इंदिरा गांधी को कोर्ट में पेश होने का समन भी जारी हुआ। आजाद भारत में ये पहला मौका था, जब किसी मौजूदा प्रधानमंत्री को कोर्ट में कटघरे में खड़ा होना पड़ा।

18 मार्च 1975 को इंदिरा कोर्ट रूम में पहुंचीं। कोर्ट में सख्त सुरक्षा थी, सिर्फ वैध पास वालों को ही एंट्री मिली। कोर्ट रूम खचाखच भरा था। जस्टिस सिन्हा ने साफ कर दिया कि इंदिरा वहां प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं, बल्कि एक आरोपी के तौर पर पेश हो रही हैं। इसलिए उनके आने पर कोई खड़ा नहीं होगा। इंदिरा ने कोर्ट में प्रवेश किया, जज को अभिवादन किया और कटघरे में खड़ी हुईं। उनके वकील की गुजारिश पर उन्हें बैठने की इजाजत मिली।

राजनारायण की तरफ से वरिष्ठ वकील शांति भूषण ने चार घंटे बीस मिनट तक इंदिरा से जिरह की। कई सवालों पर इंदिरा नर्वस दिखीं, उनके माथे पर पसीने की बूंदें नजर आईं। कुल मिलाकर वो करीब पांच घंटे कोर्ट में रहीं। इस दौरान उनके वकील सतीश चंद्र खरे उनके साथ थे, लेकिन कोई और उनके पास नहीं गया। कोर्ट से निकलते वक्त बाहर प्रदर्शनकारी थे, जिन्होंने काले झंडे दिखाए और नारेबाजी की। पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठियां भांजी और कई को हिरासत में ले लिया।

जस्टिस सिन्हा का फैसला

12 जून को सुबह 10 बजे जस्टिस सिन्हा ने अपना फैसला सुनाया। कोर्ट रूम नंबर 24 में देश-दुनिया की नजरें टिकी थीं। जस्टिस सिन्हा ने राजनारायण की याचिका में उठाए सात में से दो मुद्दों को सही पाया। पहला, इंदिरा के ओएसडी यशपाल कपूर ने सरकारी नौकरी छोड़ने से पहले ही उनके लिए रायबरेली में प्रचार शुरू कर दिया था। दूसरा, इंदिरा की चुनावी सभाओं के लिए यूपी सरकार के अधिकारियों ने सरकारी खर्चे पर मंच, लाउडस्पीकर और शामियाने लगवाए।

जस्टिस सिन्हा ने अपने 258 पेज के फैसले में लिखा कि इंदिरा ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का गैर-कानूनी इस्तेमाल किया। इस आधार पर उन्होंने रायबरेली से उनकी लोकसभा सीट रद्द कर दी और उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया। ये दुनिया में शायद पहला मौका था, जब किसी हाईकोर्ट ने मौजूदा प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसा फैसला सुनाया। हालांकि, जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा को सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए 20 दिन का स्टे भी दिया।

जस्टिस सिन्हा पर दबाव

फैसले से पहले जस्टिस सिन्हा पर तरह-तरह के दबाव बनाए गए। इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस डीएस माथुर, जो इंदिरा के निजी डॉक्टर के रिश्तेदार थे, ने सिन्हा को सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने का लालच दिया। एक कांग्रेसी सांसद रोज उनके घर आने लगा। सिन्हा ने घर छोड़कर उज्जैन में अपने भाई के पास जाने का बहाना बनाया और गायब हो गए। उनकी निजी सचिव मन्ना लाल के पीछे सीआईडी लगाई गई, लेकिन मन्ना लाल ने कुछ नहीं बताया। सिन्हा ने फैसले के अहम हिस्से आखिरी वक्त में जोड़े, ताकि कोई भनक न लगे।

गुजरात में भी कांग्रेस को झटका

उसी दिन गुजरात विधानसभा चुनाव के रुझान आए, जो कांग्रेस के लिए और बुरी खबर लेकर आए। जनता मोर्चा, जिसमें संगठन कांग्रेस, जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी और लोकदल शामिल थे, ने 182 में से 88 सीटें जीतीं। कांग्रेस को सिर्फ 75 सीटें मिलीं, जबकि पहले उसके पास 140 सीटें थीं। पूर्व मुख्यमंत्री चिमन भाई पटेल की पार्टी ने भी जनता मोर्चा को समर्थन दिया। बाबू भाई जसू भाई पटेल गुजरात के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। लेकिन इमरजेंसी के बाद चिमन भाई ने पाला बदल लिया और 1976 में जनता सरकार गिर गई।

इमरजेंसी का रास्ता

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने इंदिरा के सामने दो रास्ते छोड़े- सुप्रीम कोर्ट में अपील या प्रधानमंत्री पद छोड़ना। लेकिन इंदिरा ने तीसरा रास्ता चुना। 25-26 जून 1975 की रात को उन्होंने देश में इमरजेंसी लागू कर दी। लोकतंत्र, नागरिक अधिकार और अभिव्यक्ति की आजादी पर ताला लग गया। विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया, प्रेस पर सेंसरशिप लगी। 21 महीने बाद इंदिरा ने 1977 में लोकसभा चुनाव करवाए और इमरजेंसी हटाई। लेकिन जनता ने उन्हें करारा जवाब दिया। कांग्रेस को भारी हार मिली, इंदिरा रायबरेली से और उनके बेटे संजय गांधी अमेठी से हार गए। केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी।

सुप्रीम कोर्ट में अपील

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के 11 दिन बाद इंदिरा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। उनके वकील फ्रैंक एंथोनी और ननी पालखीवाला ने हाईकोर्ट के फैसले पर पूरी रोक की मांग की। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने 24 जून को अंतरिम आदेश में इंदिरा को संसद सदस्य बने रहने की इजाजत दी, लेकिन वो न तो सदन की कार्यवाही में हिस्सा ले सकती थीं, न बोल सकती थीं, न वोट कर सकती थीं। ये आधी-अधूरी राहत थी। विपक्ष ने इसके बाद भी इंदिरा पर इस्तीफे का दबाव बनाया। जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में रैली कर इंदिरा की सरकार को अनैतिक और असंवैधानिक बताया।

राजनारायण का मुकदमा

1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा ने रायबरेली से एक लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की थी। लेकिन राजनारायण ने उनकी जीत को कोर्ट में चुनौती दी। उनकी याचिका में सात आरोप थे, जिनमें से जस्टिस सिन्हा ने दो को सही माना। शांति भूषण ने कोर्ट में यशपाल कपूर का उदाहरण देकर साबित किया कि इंदिरा ने सरकारी कर्मचारियों का इस्तेमाल किया। शुरू में विपक्ष ने भी इस याचिका को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन शांति भूषण की दलीलों ने इसे मजबूत कर दिया।

फैसले पर विवाद

जस्टिस सिन्हा के फैसले की देश-विदेश में तारीफ हुई। उन्हें निडर और ईमानदार जज कहा गया। लेकिन कुछ ने इसे जरूरत से ज्यादा सख्त बताया। लंदन के टाइम्स अखबार ने लिखा कि ये ट्रैफिक नियम तोड़ने की सजा में प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने जैसा है। कुलदीप नैयर ने भी अपनी किताब में इसे चींटी मारने के लिए हथौड़ा चलाने जैसा बताया। लेकिन इस फैसले ने भारत की सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया। कांग्रेस का एकछत्र राज टूटा, और सत्ता परिवर्तन का सिलसिला शुरू हुआ।

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