कश्मीर की घाटी कभी हिंदू धर्म का चमचमाता रत्न हुआ करती थी। नीलमत पुराण और कल्हण की राजतरंगिणी बताते हैं कि वैदिक काल में यहां शिव-वैष्णव पूजा और कश्मीरी शैव दर्शन का बोलबाला था। कश्मीरी पंडित, जो पंच गौड़ ब्राह्मणों का हिस्सा थे, विद्वता, प्रशासन और संस्कृति के सिरमौर थे। ‘पंडित’ शब्द उनके ज्ञान और रुतबे का प्रतीक था। लेकिन यह हिंदू-बौद्ध बहुल घाटी कैसे मुस्लिम बाहुल्य बन गई? और क्यों आज भी कश्मीर के मुस्लिम ‘पंडित’, ‘भट’, ‘लोन’ जैसे ब्राह्मण सरनेम लगाते हैं? यह कहानी इतिहास, दबाव और सांस्कृतिक जड़ों की गजब की मिसाल है। आइए, इस 700 साल पुराने सफर को रोचक अंदाज में समझें।
बौद्ध धर्म के उफान के बाद इस्लाम ने दी थी दस्तक
तीसरी सदी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने कश्मीर को बौद्ध धर्म का गढ़ बनाया। मठ, विद्वान और विश्वविद्यालयों ने घाटी को ज्ञान का केंद्र बनाया, मगर हिंदू परंपराएं भी जिंदा रहीं। आठवीं सदी में तुर्क और अरब हमलावरों ने कश्मीर को छुआ, लेकिन पहाड़ों की दीवारों ने घाटी को बचा लिया। फिर 13वीं सदी में सूफी संत मीर सैय्यद अली हमदानी जैसे शख्सियतों ने इस्लाम की मशाल जलाई।
असल तूफान 14वीं सदी में सुल्तान सिकंदर बुतशिकन के शासन में आया। उसका कठोर रवैया जैसे कि मंदिर तोड़ना, टैक्स का बोझ, और धर्म परिवर्तन का दबाव ने हिंदुओं, खासकर पंडितों, को दो रास्ते दिए: इस्लाम कबूल करो या तो घाटी छोड़ो। कई पंडितों ने इस्लाम अपनाया, तो कई देश के अन्य कोनों में बिखर गए।
धर्म बदला लेकिन आज भी पंडित पहचान बरकरार
मोहम्मद देन फौक की किताब “कश्मीर कौम का इतिहास” में ‘पंडित शेख’ चैप्टर बताता है कि इस्लाम कबूल करने वाले ब्राह्मणों ने अपनी सांस्कृतिक जड़ें नहीं छोड़ीं। ‘पंडित’ टाइटल, जो उनकी विद्वता और ऊंचे दर्जे का प्रतीक था, उन्होंने शान से आज तक थामे रखा। ये ‘मुस्लिम पंडित’ या ‘पंडित शेख’ कहलाए, जिन्हें सम्मान में ‘ख्वाजा’ भी कहा जाता है। आज कश्मीर में इनकी आबादी करीब 50,000 है। वहीं ‘भट’, ‘बट’, ‘लोन’, ‘गनी’, ‘दार’, ‘मट्टू’, ‘वानी’, ‘तांत्रे’ जैसे सरनेम भी हिंदू पंडितों से आए, जो इस्लाम अपनाने के बाद भी कायम रहे। किताब कहती है कि असली कश्मीरी तो यही पंडित हैं। हैरानी की एक बात यह भी है कि न तो हिंदू पंडितों को इन सरनेमों पर ऐतराज था और न ही मुस्लिमों को। यह कश्मीर की साझी संस्कृति की ताकत है।
क्यों बदली घाटी की तस्वीर?
ऐसा माना जाता है कि कश्मीर की मूल नस्ल जैन और बौद्ध थी, जो बाद में हिंदू-ब्राह्मण बहुल हुई। 14वीं सदी में सुल्तान सिकंदर के दमन ने सारा खेल बदला। साथ ही लोहारा राजवंश की कमजोरी, ब्राह्मणों पर टैक्स का बोझ, और आंतरिक असंतोष ने हिंदुओं के खिलाफ़ माहौल बनाया। सूफी संतों का प्रचार और सत्ता का दबाव धर्म परिवर्तन की बड़ी वजह बने।
वहीं सिकंदर के बाद जैन-उल-आबिदीन जैसे उदार मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं को वापस बुलाया, मगर तब तक मुस्लिम आबादी काफ़ी बढ़ चुकी थी। पंडितों की सांस्कृतिक छाप इतनी गहरी थी कि इस्लाम अपनाने वाले ‘पंडित’ सरनेम को गर्व से अपनाते रहे। यह सरनेम उनकी विद्वता, सामाजिक रुतबे और कश्मीरी जड़ों का प्रतीक बन गया।
आज के मुस्लिम पंडित: साझी विरासत का गहना
कश्मीरी पंडितों को चार वर्गों में बांटा गया: बनवासी (पलायन करने वाले), मलमासी (डटे रहने वाले), बुहिर (व्यापारी), और मुस्लिम पंडित (इस्लाम अपनाने वाले, जो पंडित सरनेम रखते हैं)। आज ‘पंडित शेख’ ग्रामीण कश्मीर में आम हैं, जो ‘राजदान’, ‘मट्टू’, ‘वानी’ जैसे सरनेम लगाते हैं। ये समुदाय कश्मीर की साझी विरासत का जीवंत सबूत हैं। उनके लिए ‘पंडित’ सिर्फ सरनेम नहीं, बल्कि कश्मीरी अस्मिता और संस्कृति का प्रतीक है। यह परंपरा दिखाती है कि धर्म बदलने से पहचान नहीं मिटती।
कश्मीर की अनोखी कहानी
कश्मीर की यह कहानी धर्म, संस्कृति और पहचान के संगम की मिसाल है। सुल्तानों के दबाव और सूफी संतों के प्रचार ने घाटी को मुस्लिम बहुल बनाया, मगर पंडितों की सांस्कृतिक जड़ें इतनी मजबूत थीं कि वे इस्लाम में भी अपनी छाप छोड़ गईं। आज जब कोई मुस्लिम कश्मीरी ‘पंडित’ या ‘भट’ सरनेम लगाता है, तो वह सिर्फ अपना नाम नहीं, बल्कि कश्मीर की साझी विरासत को गर्व से उठाता है। यह साबित करता है कि कश्मीर का दिल, चाहे हिंदू हो या मुस्लिम, उसकी सांस्कृतिक आत्मा में बसता है।