दलितों तक सीमित रखना सबसे बड़ी नाइंसाफी है डॉक्टर अंबेडकर के साथ

Bhimrao ambedkar

नई दिल्ली: डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बनाये संविधान की खूबसूरती ही है कि भारत में हर पांच साल पर सत्ता का हस्तांतरण जनादेश के मुताबिक़ बिना किसी बाधा के हो जाता है। यहां ना किसी की तानाशाही आज तक चल पायी और ना ही सेना ने ही कभी संघीय व्यवस्था में हस्तक्षेप किया, सबके अधिकार और सबकी सीमाएं इस तरह वर्णित हैं कि अतिक्रमण की गुंजाइश ही नहीं है। अब इसमें दो राय नहीं कि समाज के सबसे निचले वर्ग से ताल्लुक रखने वाले बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए बहुत कुछ किया। मगर, क्या बहुमुखी प्रतिभा के धनी बाबा साहब की शख्सियत के साथ पूरा न्याय हो पाया, 14 अप्रैल को उनके जन्मदिवस पर राजसत्ता एक्सप्रेस सवाल उठा रहा है कि क्या बाबा साहब को सिर्फ अनुसूचित जातियों तक सीमित कर देना उचित है।

बहुमुखी प्रतिभा और ज्ञान के धनी आंबेडकर को हम सामान्य रूप से ‘दलितों के मसीहा’ या ‘सामाजिक न्याय के पुरोधा’ के रूप में ही संबोधित करते हैं.और यह उनके साथ आज तक हुई सबसे बड़ी नाइंसाफी है, जिसकी ज़िम्मेदार मूल रूप से हमारी शिक्षा-व्यवस्था,स्वतंत्रता के बाद की सरकारें एवं इतिहासकार हैं जिन्होंने कई दशकों तक आंबेडकर को महज़ इन्हीं दोनों सांचों में डाल कर उनको पूरे देश के समक्ष प्रस्तुत किया. निश्चित रूप से डॉ. आंबेडकर ने दलितों के उत्थान के लिए अतुल्यनीय कार्य किया लेकिन उनका पूरा जीवन राष्ट्र-निर्माण और समाज-कल्याण में बीता, यह दलित समुदाय के उत्थान तक सीमित नहीं था। मगर, इसके बाद भी हम क्यों उनको महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद आदि की तरह राष्ट्रीय-नेता का दर्जा नहीं देते हैं, जिन्होंने यही सब काम ही किए हैं।

जिस तरह से सरदार वल्लभभाई पटेल को पटेलों का नेता या मौलाना आज़ाद को मुसलमानों का नेता कहना उनके साथ अन्याय होगा उसी तरह आंबेडकर को भी सिर्फ ‘दलितों का नेता’ कहना राष्ट्र-निर्माण में उनके योगदान को अनदेखा करने जैसा होगा। लन्दन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से एमए डा आंबेडकर एक कुशल अर्थशास्त्री भी थे जिन्होंने भारत की मौजूदा आर्थिक व्यवस्था की नींव रखी। 1935 में भारतीय रिजर्व बैंक का आधार उनके द्वारा हिल्टन यंग कमीशन के समक्ष प्रस्तुत विचारों के आधार पर हुआ था। नोबेल पुरस्कार विजेता एवं भारत रत्न से सम्मानित जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन भी कह चुके हैं कि डॉ. भीमाराव आंबेडकर अर्थशास्त्र में मेरे पिता है।

आज़ाद भारत के लिए योजना बनाने में भी आंबेडकर का बहुत बड़ा योगदान था। जिसका लाभ देश को आज तक हो रहा है। आंबेडकर ने बिजली उत्पादन और थर्मल पावर स्टेशन की जांच पड़ताल की समस्या का विश्लेषण करने, बिजली प्रणाली के विकास, जलविद्युत स्टेशन, साइटों, हाइड्रो इलेक्ट्रिक सर्वे के लिए केन्द्रीय तकनीकी विद्युत बोर्ड यानी सीटीईबी की स्थापना की। डा आंबेडकर दामोदर घाटी परियोजना, हीराकुंड परियोजना, सूरजकुंड नदी-घाटी परियोजना के निर्माता भी रहे हैं। उन्होंने बेहद अहम ”ग्रिड सिस्टम” पर ज़ोर दिया जो आज भी सफलतापूर्वक काम कर रहा है। डॉ. आंबेडकर मज़दूरों के भी मुक्तिदाता कहे जा सकते हैं। वो भारत में मजदूरों के लिए 8 घंटों का कार्य निर्धारण कर उनके जीवन में एक नयी रौशनी लेकर आये थे। डा आंबेडकर की ही कोशिशों से ना जाने कब से चला आ रहा 12 घंटे का कार्य समय घटाकर 8 घंटे किया गया था।

महिलाओं के अधिकारों के लिए उनका संघर्ष तो बेहद ख़ास है। भारत के पहले कानून मंत्री के तौर पर डॉ.आंबेडकर ने ‘हिन्दू मैरिज बिल’ तैयार किया, जिसका मकसद ही महिलाओं का उत्थान था। भारतीय महिलाओं की गरिमा सुरक्षित करने वाले इस बिल को पारित करवाने के लिए उन्होंने तीन साल तक लड़ाई लड़ी. और, आखिरकार ‘हिन्दू मैरिज बिल’ पारित न होने को लेकर नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। याद रखिए यह किसी दलित-मुद्दे पर नहीं बल्कि महिलाओं के लिए लिया गया फैसला था, लेकिन इसके बावजूद भारत के नारीवादी आंदोलनों में बाबा साहब को ख़ास ज़िक्र नहीं होता है।

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भारत की एकता और अखंडता को लेकर उनकी प्रतिबद्धता को भी ध्यान से समझने की ज़रुरत है, जिससे उनके विराट व्यक्तित्व के वो पहलू उजागर होंगे जिनकी अनदेखी की गयी है। जम्मू कश्मीर को लेकर संविधान के विवादित अनुच्छेद 370 को लेकर माहौल फिर गरम है। इतिहास गवाह है कि कश्मीर के शासक रहे शेख अब्दुल्लाह अनुच्छेद 370 के बारे में जब आंबेडकर के पास पहुंचे तो उन्होंने इसकी मंजूरी देने से साफ इंकार कर दिया. बाबा साहब का साफ कहना था कि यह धारा भारत की स्थिरता के लिए खतरनाक होगी। अब आप ही बताइये कि ऐसे राष्ट्रवादी और प्रतिभावान न्यायविद, अर्थशास्त्री जो हमें एक समाज सुधारक के साथ ही श्रमिक नेता, नारीवादी और भारतीय दर्शनशास्त्र के विद्वान् के रूप में भी दिखाई पड़ते हैं, उनको जब हम ‘दलित-नेता’ कहते है तो क्या हम डॉ अम्बेडर को उसी जाति-व्यवस्था तक सीमित नहीं कर देते हैं जो एक दलित को सिर्फ़ हीन दृष्टि से देखने के लिए प्रेरित करता है।

अंबेडकर के नाम पर राजनीति तो सत्तर बरस में बहुत हो गयी। उनके नाम पर सरकारें भी बना ली गयीं और सत्ता का सुख भी भोग लिया गया। लेकिन अब समय आ गया है कि हम भारत-रत्न डॉक्टर आंबेडकर को वाकई ‘भारत के रत्न’ की निगाह से देखें। वैसे इससे बड़ी विडंबना भला क्या होगी कि जो दल आज आंबेडकर के प्रति इंतहा का प्रेम और सम्मान दिखाते हैं, उन्हें आंबेडकर को सम्मानित करने की याद आजादी के चार दशक बाद आयी। 1990 में जा कर कहीं उनको ‘भारत-रत्न’ की उपाधि दी गई.जबकि पंडित नेहरू को 1955, इंदिरा गांधी को 1971 को भारत रत्न से सम्मानित किया जा चुका था।

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