कांशीराम, मुलायम सिंह यादव वाला करिश्मा दोहरा पाएंगे माया, अखिलेश ?

कुलदीप देव द्विवेदीः सियासत में एक बार फिर इतिहास खुद को दोहरा रहा है। बात आज से 25 साल पहले की है, जब एक नारा चला था, मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम’ जी हैं, 1993 के विधानसभा चुनाव (ASSEMBLY ELECTION) में तात्कालीन बसपा सुप्रीमो कांशीराम (KANSHIRAM) ने और सपा मुखिया मुलायम सिंह (MULAYAM SHINGH) ने मिलकर बीजेपी के खिलाफ चुनाव लड़ा था।

अब दोनों के मुखिया बदल गए हैं, परिस्थितयां बदल गई हैं। लेकिन एक बार फिर दोनों पार्टियों के मुखिया पुराने दुश्मन का मुकाबला करने के लिए साथ आ गए हैं। जिसके बाद ये सवाल खड़ा हो गया है, कि क्या यूपी में 1993 वाला इतिहास दोहरा पाएगा। सीटों के मामले में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी सरकार बनाने में बीजेपी को रोक पाएंगे। ये वो कुछ सवाल  हैं, जो इनदिनों सियासी हलकों में गूंज रहे हैं।

1993 में कम सीटें पाकर बनाई थी सरकार

आगे की बात करें इससे पहले इतिहास पर एक नजर डालें, तो आज की तरह ही उस वक्त भी बीजेपी राम लहर में डूबी हुई थी। जोश बाबरी को जमींदोज करने का था। इस बार मंदिर तामीर कराने की उम्मीद का है। तब बीएसपी और सपा ने सामप्रदायिक ताकतों के खिलाफ एक जुट होकर चुनाव लड़ा था। 425 सीटों में बीजेपी को 177 सीटें मिली थी। दलितों की पार्टी बीएसपी 67, और सपा 109 सीटें पाकर सरकार बनाने में कामयाब हो गए। लेकिन मुखिया तीसरी बड़ी पार्टी की नेता यानी की मायावती को मौका मिला था।

दो साल में गिर गई थी सरकार

सरकार ने दो साल का कार्यकाल पूरा और जब मुलायम की मुख्यमंत्री बनने का मौका आया तो मायावती मुकर गईं और सरकार गिर गई। बाद में मायावती के साथ ‘गेस्ट हाउस कांड’ समेत कई घटना क्रम हुए। लेकिन इस दौरान सपा और बसपा में कभी न पटने वाली खांई खड़ी हो गई थी।

माया अखिलेश एक साथ

आज 25 साल बाद शायद मायावती के उस वक्त के जख्म भर गए हैं, जिसको बाद मुलायम के बेटे के साथ वो आने को तैयार है। जिसके पीछे गणित वही 1993 वाला है, दलित और पिछड़ों को साथ लेकर बीजेपी को हार मुंह दिखाना। लेकिन क्या ये सब इतना आसान है।

मोदी मैजिक से बड़ा मुकाबला

आज जहां एक तरफ मोदी का मैजिक है, वहीं दूसरी तरफ माया, अखिलेश का गठबंधन। 25 साल की तल्खी खत्म करके दोनों हाथ मिलाने को आतुर हैं। लेकिन क्या दलित और पिछड़े दोनोें अपने साथ कर पाएंगे। क्योंकि तब और अब में बहुत पानी बह चुका है। तब की राम लहर और अब मोदी और राम मंदिर की लहर दोनों है।

अपनी-अपनी रणनीति

सपा और बसपा गठबंधन की तैयारी में हैं, बीच में अफवाहों के माध्यम से ये भी थाह ले ली है। कि बिना कांग्रेस के वो कितने सफल होंगे। अफवाह कामयाब रही, प्रतिक्रिया सार्थक रही। अब रणनीति की बारी है, जिसके लिए बसपा की जिला स्तर की इकाईयों ने दलित इलाकों में जाकर अपनी छोटी छोटी सभाएं आयोजित करने लगी है। बीजेपी  बूथ स्तर पर खुद को मजबूत कर ही है। मोदी योगी मिलकर हिन्दुत्व का कार्ड खेल रहे हैं।

गठबंधन से बीजेपी को घाटा

मीडिया के सर्वे से सपा और बसपा को जोर मिल रहा है। हाल में हुए एक सर्वे के मुताबिक अगर सपा और बसपा का गठबंधन हो गया तो, यूपी में बीजेपी की सीटों में बड़ा घाटा हो रहा है। वहीं गठबंधन न होने की स्थिति में बीजेपी को मामूली नुकसान का अनुमान है। वहीं मोदी की घटती लोकप्रियता को भुनाने की तैयारी है।

एक जुटता करेगी कमाल

यूपी में 12 प्रतिशत यादव हैं, मुस्लिमों की संख्या 18 प्रतिशत हैं, वहीं माया के दलित वोटरों की संख्या करीब 24 प्रतिशत है, जिसमें जाटव, बाल्मीकी, शामिल है। दोनों इन सभी के वोटों का कुल प्रतिशत 50 प्रतिशत से अधिक है। ऐसे में अगर मुसलिम वोटों का कांग्रेस और सपा के बीच बंटवारा नहीं हुआ, तो दोनों को अच्छी सीटें मिलने का अनुमान है।

राममंदिर फिर गर्माया

वहीं बीजेपी को एक बार फिर हिंदू वोटों का भरोसा है। इसीलिए राममंदिर मुद्दा लगातार गर्माया जा रहा है। वहीं हिन्दुत्व का कार्ड लगातार बीजेपी आजमा रही है। मोदी की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है। कि हाल में हुए पांच राज्यों में चुनाव परिणाम में बीजेपी की सत्ता भले ही चली गई हो। लेकिन राजस्थान और मध्यप्रदेश में मामूली सीटों से बीजेपी की हार हुई है। जबकि विकास समेत एंटीइनकमबेंसी का मुकाबला बीजेपी को करना था।

 

दलित, पिछड़ों पर दारोमदार

साल 1993 में सपा बसपा को मंडल आयोग से एक साथ आए ओबीसी वोटरों का फायदा मिला था। जबकि अब यहां बीजेपी लगातार पिछड़ों के आरक्षण को बांट कर अति पिछड़ों को अपने पाले में करने की कोशिश में है। एससीएसटी एक्ट में संसोधन करके भी दलितों को लुभाने में लगी है। तब मुलायम-कांशीराम के साथ ओबीसी तबके की उम्मीदें जुड़ी थीं, लेकिन बदलते परिवेश में अखिलेश-मायावती के सामने ओबीसी की उम्मीदें टूटती दिखाई दे रही हैं और दोनों नेता सियासत के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं.

दिलचस्प पहलू यह है कि कांग्रेस इस गठबंधन से बाहर है. हालंकि कांग्रेस भी इस गठबंधन के साथ चुनाव बाद जुड़ सकती है.

 

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