एससी-एसटी एक्ट में पुलिस पर भी शिकंजा, नाजायज़ गिरफ्तारी पड़ जाएगी भारी

अरनेश बनाम बिहार सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो व्यवस्था दी है उसके तहत सात साल से कम सजा वाले मामलों में सीधी गिरफ्तारी पर विवेचनाधिकारी पर विभागीय कार्रवाई के अलावा सीधे हाईकोर्ट में अवमानना का वाद दायर किया जा सकता है। अगर मजिस्ट्रेट बिना कारण स्पष्ट किए पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देता है तो उसपर भी कार्रवाई हो सकती है.

चंदन श्रीवास्तव: अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत गिरफ्तारी को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने सख्त निर्देश दे रखे हैं. अगर ऐसे किसी आरोप में गिरफ्तारी होती है जिसमें अधिकतम सजा सात साल से ज्यादा नहीं है तो सम्बंधित पुलिस अधिकारी के खिलाफ शीर्ष अदालत की अवमानना का वाद दायर किया जा सकता है. वह भी सीधे हाईकोर्ट में. इतना ही नहीं अगर एससी-एसटी एक्ट के तहत अभियुक्त की गिरफ्तारी के लिए पुलिस को अधिकृत करने वाला मजिस्ट्रेट अपने आदेश में तार्किक कारण दर्ज नहीं करता है तो उसके खिलाफ भी सम्बंधित हाईकोर्ट विभागीय कार्रवाई कर सकता है.

जी हां, शीर्ष अदालत द्वारा अरनेश कुमार बनाम बिहार सरकार मामले में दी गई व्यवस्था यही कहती है कि यदि कोई पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी को लेकर दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करता तो न सिर्फ उसके खिलाफ विभागीय कार्रवाई की जा सकेगी बल्कि उस क्षेत्राधिकार वाले हाईकोर्ट में उसके खिलाफ अदालत के आदेश की अवमानना का मुकदमा लाया जा सकेगा और वह दंडित किया जा सकेगा. दो दिन पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अरनेश कुमार मामले में दी गयी व्यवस्था का हवाला देकर एक याचिका का निस्तारण किया है. जिसके बाद से गिरफ्तारी को लेकर अदालती प्राविधान मीडिया की सुर्खियां बने हैं.

अब पहला प्रश्न उठता है कि अरनेश कुमार मामले में शीर्ष अदालत ने क्या दिशा-निर्देश जारी किए हैं? उक्त दिशा-निर्देशों की महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं-

सभी पुलिस अधिकारियों को एक चेक लिस्ट मुहैया कराई जाएगी. इस चेक लिस्ट में सीआरपीसी की धारा- 41(1)(b)(ii) के तहत सात साल या उससे कम की सजा के लिए दंडित संज्ञेय अपराध के मामले में यदि अभियुक्त की गिरफ्तारी की जाती है अथवा की जानी है तो उन कारणों व मेटेरियल्स को दर्ज किया जाएगा जिनके आधार पर गिरफ्तारी की गई अथवा की जानी है. इसे सम्बंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाएगा और मजिस्ट्रेट उक्त रिपोर्ट को देखेगा व संतुष्टि हो जाने पर वह कारणों को दर्ज करते हुए, गिरफ्तारी के लिए अधिकृत करेगा. सात साल से कम की सजा वाले अपराध से मतलब है, वो अपराध जिनके सिद्ध हो जाने पर अदालत अधिकतम सात साल की सजा सुना सकती है. मिसाल के तौर पर गाली-गलौज या जातिसूचक शब्द कहने के मामले में अधिकतम सजा पांच साल ही है.

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सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में सीआरपीसी की धारा- 41A को भी स्पष्ट किया कि जहां सात साल या इससे कम की सजा के तहत अपराध किये जाने की सूचना है, वहां अभियुक्त को सर्वप्रथम एक नोटिस भेजकर पुलिस का विवेचनाधिकारी तलब करेगा. यदि वह विवेचनाधिकारी के समक्ष उपस्थित होता है तो उसे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा. और यदि गिरफ्तार किया जा रहा है अथवा नोटिस के बावजूद हाजिर न होने की स्थिति में गिरफ्तार किया जाना है तो उन कारणों को दर्ज किया जाएगा जिनकी वजह से गिरफ्तारी की जा रही है. और ऐसी स्थिति में भी गिरफ्तारी के कारण मजिस्ट्रेट के परीक्षण का विषय होंगे. मतलब मजिस्ट्रेट तय करेगा कि पुलिस ने गिरफ्तारी सही की या गलत.

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सात साल या इससे कम के सजा के मामलों में आरोपी व्यक्ति को सबसे पहले नोटिस भेजा जाएगा न कि रूटीन वे में गिरफ्तारी की जाएगी. नोटिस पर उपस्थित होने की दशा में उसकी गिरफ्तारी नहीं की जाएगी. यदि गिरफ्तार किया जा रहा है अथवा विवेचनाधिकारी गिरफ्तार करना चाहता है तो इन पांच में से किसी एक कारण को सिद्ध करना होगा.

1- क्या आरोपी व्यक्ति आगे कोई अपराध कर सकता है?
2- गिरफ्तारी के बिना अपराध की जांच क्यों नहीं हो सकती?
3- क्या वह उक्त अपराध के साक्ष्य को मिटा सकता है?
4- क्या वह गवाहों पर दबाव डाल सकता है?
5- क्या उसकी गिरफ्तारी के बिना उसकी न्यायालय में उपस्थिति सम्भव नहीं?

इन पांच सवालों के विवेचनाधिकारी द्वारा दिए जवाब/आधार/मेटेरियल्स मजिस्ट्रेट के परीक्षण का विषय होंगे.

सर्वोच्च न्यायालय ने इसी फैसले में साफ़ कहा है कि उक्त दिशा-निर्देशों का पालन न करने पर पुलिस अधिकारी के खिलाफ विभागीय कार्रवाई तो होगी ही उस क्षेत्राधिकार वाले हाईकोर्ट में अवमानना की कार्रवाई होगी. यानि पीड़ित पक्ष सम्बंधित पुलिस अधिकारी के खिलाफ उच्चतम न्यायालय की अवमानना का वाद दायर कर सकता है.
इसके साथ ही ऐसी गिरफ्तारी के लिए अधिकृत करने वाला मजिस्ट्रेट भी यदि अपने आदेश में कारण नहीं दर्ज करता तो उसके खिलाफ यथोचित हाईकोर्ट द्वारा विभागीय कार्रवाई की जाएगी. यहां यह बताना आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय के उक्त दिशा-निर्देश दंड प्रक्रिया संहिता 1973 के धारा- 41 व धारा 41A के मद्देनजर हैं.

अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम) के हाल में हुए संशोधन अधिनियम में धारा- 18A को जोड़ा गया. धारा- 18A (1)(b) में भी यह स्पष्ट कहा गया कि इस अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत कार्यवाही में इस अधिनियम व सीआरपीसी के अलावा अन्य कोई प्रक्रिया नहीं अपनाई जाएगी. जाहिर है सीआरपीसी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. लिहाजा सीआरपीसी की धारा- 41 वधारा- 41A भी उक्त अत्याचार निवारण अधिनियम पर लागू होगी. और इस वजह से अरनेश कुमार मामले में दिया दिशा-निर्देश भी लागू होगा जो सात साल या कम के अपराध में शीर्ष अदालत द्वारा जारी किया गया है.


(लेखक इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में अधिवक्ता हैं जिनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है )


 

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