सपा का पीडीए बनाम बीजेपी का पीडीए, यूपी में कौन सा फॉर्मूला बनेगा हिट?

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2027 में होने हैं, लेकिन सियासी खींचतान अब से ही तेज हो गई है। खासकर समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बीच सामाजिक समीकरणों की जंग शुरु हो गई है। दोनों ही पार्टियां पीडीए फॉर्मूले का इस्तेमाल कर रही हैं, लेकिन उनकी रणनीति में अंतर है। सपा का पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूला और बीजेपी का पीडीए (पिछड़ा, दलित, आधी आबादी) फॉर्मूला दोनों ही 2027 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से बड़े खेल का हिस्सा बने हैं। तो सवाल यह है कि आखिर कौन सा फॉर्मूला यूपी की सियासत में जीत हासिल करेगा?

सपा का पीडीए फॉर्मूला 2024 में रहा हिट

सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 2022 विधानसभा चुनाव में पार्टी की सियासी पहचान बदलने के लिए ‘पीडीए’ फॉर्मूला अपनाया था। इसमें पिछड़ा वर्ग, दलित और अल्पसंख्यक वोटों को एक साथ जोड़ने की कोशिश की गई थी। इसका फायदा सपा को 2024 लोकसभा चुनाव में भी मिला, जहां उन्होंने मुस्लिम और यादवों को छोड़कर कुर्मी, मल्लाह, मौर्य और अन्य गैर-यादव ओबीसी जातियों को प्रमुखता दी। सपा ने यूपी में कुल 37 सीटें जीती थीं, जबकि बीजेपी सिर्फ 33 सीटों पर ही सीमित रही थी। इस हार से बीजेपी को अहसास हुआ कि उन्हें भी पिछड़ों और दलितों पर ध्यान देना होगा।

बीजेपी का पीडीए फॉर्मूला, जातीय समीकरण पर जोर

बीजेपी ने भी 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए जातीय समीकरण पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। पार्टी ने पिछड़ों, दलितों और महिलाओं को संगठन में महत्वपूर्ण भूमिका देने की रणनीति बनाई है। यूपी में बीजेपी ने 1918 मंडल अध्यक्षों में से 751 अध्यक्षों की नियुक्ति की है। इसमें ओबीसी को 40%, दलितों को 20% और महिलाओं को 15% प्रतिनिधित्व दिया गया है। बीजेपी ने ओबीसी में विशेष तौर पर अति पिछड़ी जातियों जैसे कुर्मी, लोध, जाट, गुर्जर, मौर्य, सैनी, कुम्हार और पाल को अहमियत दी है।

इसके साथ ही बीजेपी ने गाजीपुर जिले जैसे क्षेत्रों में विभिन्न जातियों को ध्यान में रखकर मंडल अध्यक्षों की नियुक्ति की है। बीजेपी ने जिले में 34 मंडलों में से 15 अलग-अलग जातियों के अध्यक्ष नियुक्त किए हैं, जिनमें ठाकुर, ब्राह्मण, मौर्य, दलित, और अन्य पिछड़ी जातियों के नेता शामिल हैं। यह साबित करता है कि बीजेपी जातीय समीकरण को साधने की दिशा में पूरी तरह से सक्रिय है और 2027 के चुनाव में एक मजबूत संगठन बनाने की कोशिश कर रही है।

सपा का जातीय समीकरण, यादवों का दबदबा

सपा ने अपने संगठन में पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) की रणनीति पर जोर दिया है। पार्टी ने अपने 182 सदस्यीय प्रदेश कार्यकारिणी में 85% सीटें पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समाज को दी हैं। इस दौरान गैर-यादव ओबीसी समाज के नेताओं को भी जगह दी गई है, लेकिन संगठन में यादव समाज का प्रभाव ज्यादा नजर आता है। सपा ने अपनी कोर कमेटी में भी यादवों की अहमियत बनाए रखी है। हालांकि, सपा ने यह दावा किया है कि मुस्लिम समाज को भी पार्टी में प्रतिनिधित्व दिया गया है, लेकिन जिलों में ज्यादातर अध्यक्ष यादव ही हैं।

बीजेपी का माइक्रो लेवल पर काम, सपा का समाजवादी तंत्र

बीजेपी ने सपा के पीडीए फॉर्मूले का जवाब अपने माइक्रो लेवल के संगठनात्मक प्रयासों से दिया है। पार्टी ने प्रदेश और मंडल स्तर तक दलित, पिछड़े और महिलाओं को तवज्जो दी है। सपा के मुकाबले बीजेपी ने जमीनी स्तर पर अपनी ताकत बढ़ाने की दिशा में काम किया है, जहां वे प्रत्येक मंडल और विधानसभा क्षेत्र में जातीय समीकरण का ध्यान रखते हुए अध्यक्षों की नियुक्ति कर रही है। वहीं, सपा में यादव समाज का ही दबदबा दिखाई देता है, जो पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में स्पष्ट है।

2027 में कौन सा फॉर्मूला रहेगा हिट?

उत्तर प्रदेश की राजनीति में सपा और बीजेपी दोनों ने अपने-अपने जातीय समीकरण पर ध्यान दिया है, लेकिन बीजेपी ने ज्यादा माइक्रो लेवल पर काम किया है। पार्टी ने पिछड़े और दलित वोटों को अपनी रणनीति का हिस्सा बनाते हुए हर जिले में जातीय संतुलन बनाए रखा है। सपा जहां दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज को जोड़ने की कोशिश कर रही है, वहीं बीजेपी ने महिला और पिछड़ी जातियों को संगठन में बराबरी का प्रतिनिधित्व देने का लक्ष्य रखा है।

अब देखना यह है कि 2027 में कौन सा फॉर्मूला ज्यादा सफल रहेगा। क्या सपा का पीडीए फॉर्मूला, जो मुस्लिम और यादवों को ध्यान में रखकर बनाया गया है, वह अपने जमीनी स्तर पर सफल होगा, या फिर बीजेपी का पीडीए फॉर्मूला, जिसमें पिछड़े, दलित और महिलाओं का संयोजन है, अधिक असरदार साबित होगा?

निष्कर्ष: सपा और बीजेपी दोनों अपनी सियासी पारी को 2027 के चुनाव के लिए सहेजने में लगे हैं, लेकिन बीजेपी ने ज्यादा संजीदगी से जमीनी स्तर पर जातीय समीकरण को साधने की कोशिश की है। फिलहाल, बीजेपी का पीडीए फॉर्मूला सपा से ज्यादा प्रभावी नजर आता है, क्योंकि पार्टी ने माइक्रो लेवल पर अपनी जमीन मजबूत की है। अब यह देखना होगा कि चुनाव में किसका फॉर्मूला हिट होता है।

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