बांग्लादेश की राजनीति में फिर से एक अहम मोड़ आ सकता है, जैसा 1990 में हुआ था। बांग्लादेश के दोनों प्रमुख नेता, शेख हसीना और बेगम खालिदा ज़िया, एक बार फिर लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली के लिए एकजुट हो सकते हैं। 1990 में, जब बांग्लादेश में तानाशाही हुसैन मोहम्मद इरशाद का शासन था, तब शेख हसीना और खालिदा ज़िया ने मिलकर उसकी सत्ता को उखाड़ फेंका था। अब एक बार फिर बांग्लादेश की राजनीति में कुछ ऐसा ही माहौल बनता दिख रहा है। इस बार बांग्लादेश के मौजूदा मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस पर सवाल उठ रहे हैं, और जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा है।
क्या फिर से साथ आएंगी हसीना और ज़िया?
यह सवाल अब हर किसी के ज़ेहन में है कि क्या शेख हसीना और खालिदा ज़िया एक बार फिर मिलकर सत्ता की बागडोर संभालने के लिए एकजुट हो सकती हैं। 5 अगस्त 2025 को शेख हसीना के पद छोड़ने के बाद बांग्लादेश की राजनीति में घमासान मचा हुआ है। जहां बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) की उम्मीदें खालिदा ज़िया या उनके बेटे तारिक रहमान से थीं, वहीं अचानक बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। उन्हें लोकतांत्रिक चुनावों के आयोजन में लगातार बहानेबाजी करने और सत्ता पर अपना नियंत्रण मजबूत करने के आरोप लग रहे हैं।
बांग्लादेश में जनता का मानना है कि उन्हें “सिलेक्टेड गवर्नमेंट” नहीं, बल्कि “इलेक्टेड गवर्नमेंट” चाहिए। ऐसे में, विरोध प्रदर्शन बढ़ने लगे हैं और लोग लोकतंत्र की वापसी की मांग कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर जल्द चुनाव नहीं कराए गए, तो मोहम्मद यूनुस भी हुसैन मोहम्मद इरशाद की तरह सत्ता पर अपना नियंत्रण पूरी तरह से स्थापित कर सकते हैं।
इरशाद का शासन और उनका सत्ता से बेदखल होना
बांग्लादेश में सैन्य तख्तापलट के बाद 1982 में जनरल हुसैन मोहम्मद इरशाद ने सत्ता पर कब्जा किया और खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। उनका शासन मानवाधिकारों के उल्लंघन और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को कुचलने के लिए बदनाम रहा। बांग्लादेश की जनता ने उनके खिलाफ 1990 में एक आंदोलन छेड़ा, जिसका नेतृत्व शेख हसीना और खालिदा ज़िया ने किया। इस आंदोलन के दौरान आम हड़तालें और जनविरोधी प्रदर्शन हुए, जिसके कारण इरशाद को 6 दिसंबर 1990 को इस्तीफा देना पड़ा। इस घटना को बांग्लादेश के लोकतंत्र की बहाली का महत्वपूर्ण क्षण माना जाता है।
क्या फिर से हो सकता है वही इतिहास?
अब फिर से बांग्लादेश में वही स्थिति बनती नजर आ रही है। शेख हसीना और खालिदा ज़िया दोनों के बीच की राजनीतिक रंजिशों के बावजूद, यह संभावना है कि दोनों नेता एक बार फिर एकजुट होकर लोकतंत्र की बहाली के लिए संघर्ष करें। खालिदा ज़िया, जो इस समय इलाज के लिए लंदन में हैं, वहां से आंदोलन को दिशा देने के लिए सक्रिय हो सकती हैं। हालांकि, शेख हसीना के लिए भारत ने अपने वीजा विस्तार की अनुमति देकर यह संकेत दिया है कि वह बांग्लादेश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का समर्थन करता है। इस कदम को मोहम्मद यूनुस के खिलाफ एक स्पष्ट संदेश माना जा सकता है।
भारत का कदम और जनता का गुस्सा
भारत के इस कदम को बांग्लादेश में लोकतंत्र की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है। साथ ही, बांग्लादेश की जनता में लोकतांत्रिक सरकार की वापसी को लेकर गुस्सा बढ़ता जा रहा है। लोग चाहते हैं कि बांग्लादेश में अब फिर से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था हो, जहां चुनाव सही तरीके से कराए जाएं और किसी तानाशाही का खात्मा हो।
भारत की ओर से शेख हसीना को वीजा विस्तार देने के बाद बांग्लादेश में सत्ता संघर्ष और भी उग्र हो सकता है। कई राजनीतिक दलों और नागरिकों का मानना है कि यह कदम बांग्लादेश में लोकतांत्रिक सरकार की वापसी की ओर एक मजबूत कदम हो सकता है।
आगे का रास्ता: क्या बांग्लादेश में लोकतंत्र की वापसी होगी?
बांग्लादेश के सामने अब बड़ा सवाल यह है कि वह किस दिशा में जाएगा। क्या बांग्लादेश में फिर से एक तानाशाही शासन का दौर लौटेगा, जैसा कि इरशाद के समय था, या फिर लोकतंत्र की बहाली होगी? यह पूरी तरह से राजनीतिक दलों, जनता और अंतरराष्ट्रीय समर्थन पर निर्भर करेगा। अगर शेख हसीना और खालिदा ज़िया फिर से एकजुट हो जाती हैं, तो बांग्लादेश में एक और ऐतिहासिक आंदोलन की संभावना बन सकती है, जो बांग्लादेश की राजनीति को नया मोड़ दे सकता है।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या बांग्लादेश की जनता और विपक्षी दल जल्द ही इस आंदोलन में शामिल होंगे, और क्या अंतरराष्ट्रीय दबाव बांग्लादेश की वर्तमान सत्ता को लोकतांत्रिक चुनाव कराने के लिए मजबूर कर सकेगा।