सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2024 को देश में बढ़ते बाल विवाह के मामलों से संबंधित याचिका पर अपना फैसला सुनाया। यह याचिका 2017 में सोसाइटी फॉर एनलाइटनमेंट एंड वॉलेंटरी एक्शन द्वारा दायर की गई थी। अदालत ने सुनवाई के बाद 10 जुलाई को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
पर्सनल लॉ का प्रभाव नकारा
कोर्ट की पीठ में चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा शामिल थे। चीफ जस्टिस ने फैसला पढ़ते हुए स्पष्ट किया कि बाल विवाह की रोकथाम के कानून को पर्सनल लॉ के जरिए प्रभावित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि बाल विवाह नाबालिगों की स्वतंत्र इच्छा का उल्लंघन है और इससे उन्हें अपने जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं मिलता।
नाबालिगों की सुरक्षा पर ध्यान
सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि अधिकारियों को बाल विवाह की रोकथाम और नाबालिगों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। पीठ ने कहा कि उल्लंघनकर्ताओं को दंडित करने का उपाय अंतिम विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसके अलावा, कोर्ट ने बाल विवाह निषेध कानून में मौजूद कुछ खामियों पर भी प्रकाश डाला।
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006
यह अधिनियम 2006 में लागू हुआ था, जिसका उद्देश्य बाल विवाह को रोकना और इसका उन्मूलन सुनिश्चित करना था। इसने 1929 के बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम का स्थान लिया।
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाह रोकने के लिए कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिए:
- बाल विवाह से संबंधित सभी विभागों के कर्मचारियों के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता है।
- प्रत्येक समुदाय के लिए अलग-अलग उपाय अपनाए जाएं।
- दंडात्मक उपायों के बजाय, सामाजिक स्थिति को समझकर रणनीति बनाई जाए।
- बाल विवाह निषेध कानून को पर्सनल लॉ से ऊपर रखने का मुद्दा संसदीय समिति के पास लंबित है, इसलिए कोर्ट ने उस पर टिप्पणी नहीं की।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी बाल विवाह के खिलाफ एक महत्वपूर्ण कदम है, जो न केवल कानून की प्रगति को दर्शाती है, बल्कि यह भी बताती है कि सामाजिक मुद्दों को समझकर ही प्रभावी समाधान निकाले जा सकते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि नाबालिगों की स्वतंत्रता और उनके अधिकारों की सुरक्षा सर्वोपरि है।