एक राजा जिसे जनता ने फकीर कहा, लेफ्ट और राइट दोनों को एक करने वाले देश के सातवें प्रधानमंत्री की कहानी

प्रियतम कुमार
लेखक आईआईएमसी – नई दिल्ली के पूर्व छात्र हैं
जिस फकीर में शास्त्री जैसी सादगी थी और इंदिरा जैसा तेवर, उसी इलाहाबादी फकीर ने खुद को भारत का राजा मानने वाले एक इलाहाबादी नेहरू परिवार के गुरुर को तार – तार कर दिया। राजशाही में पैदा हुआ वो फकीर जब लोकतंत्र का राजा बना, तो अपने फैसले से कभी न मिटने वाली ऐसी इबारत लिखी, जिसे आज तक कोई हुकूमत मिटा न सकी। वो फकीर कोई और नहीं वही शख्स था, जिसके बारें में लोगों ने कहा कि
                           राजा नहीं फकीर है
                           देश की तकदीर है
हम बात कर रहे हैं, इलाहाबाद की मांडा रियासत में 25 जून 1931 को जन्मे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की।  1936 में वीपी सिंह को मांडा के राजा बहादुर राय गोपाल सिंह ने गोद लिया था क्योंकि उनका कोई बेटा नहीं था। 1941 में बहादुर राय की मौत के बाद वीपी को मांडा का 41वां राजा बनाया गया। वीपी सिंह मांडा रियासत के राजा थे, इसीलिए उन्हें ‘राजा ऑफ मांडा’ भी कहा जाता है। पूना और इलाहाबाद केंद्रीय विवि से अपनी उच्च शिक्षा हासिल करने वाले वी पी सिंह 1947 – 48 में वाराणसी के उदय प्रताप कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे। बाद में वे इलाहाबाद विवि के छात्रसंघ उपाध्यक्ष भी रहे। वे 1969 से प्रधानमंत्री बनने तक कई दफा विधायक, सांसद और मंत्री रहे। वे 9 जून 1980 से 28 जून 1982 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रहे। इसके अलावा वे कांग्रेस संघठन में भी कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। आइये जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ दिलचस्प किस्से।
घर से ही फूंका क्रांति का पहला बिगुल
राजा साहब ने सबसे पहले क्रांति का बिगुल अपने घर में फूंका था। 1957 में जब बिनोवा भावे ने भूदान आंदोलन शुरू किया तो राजा साहब ने उस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया और इलाहाबाद जिले के पासना गांव में  स्थित अपनी पैतृक जमीन को दान में दिया। इस बात पर घरवालों से इतनी नाराजगी बढ़ गई कि मामला कोर्ट तक जा पहुंचा।
न घर के रहे न घाट के 
प्रधानमंत्री बनने के बाद सबसे ऐतिहासिक काम जो उन्होंने किया, वो था मंडल कमीशन को लागू करना। इस फैसले से वीपी सिंह ने पूरे देश के आर्थिक – सामाजिक सिस्टम को हिलाकर रख दिया। पिछड़े वर्ग के हालात और आरक्षण पर बने मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक सिफारिश लागू करके वी पी सिंह ने ओबीसी को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण दे दिया। ये रिपोर्ट 1980 से केंद्र सरकार के पास पड़ी थी लेकिन जातिगत उन्माद से बचने के लिए, सरकारों ने इसे ठंडे बस्ते में डाल रखा था। वीपी सिंह के इस फैसले के बाद पिछड़ों के नेता बनकर लालू, कांशीराम और मुलायम जैसे लोग उभरे और वीपी सिंह सवर्णों के लिए आजन्म शत्रु बने।
कई घटनाओं का गवाह रहा वीपी सिंह का कार्यकाल
वीपी सिंह का प्रधानमंत्री कार्यकाल कई घटनाओं के लिए जाना जाता है। वीपी सिंह की सरकार में ही डॉ० अम्बेडकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हॉल में लगवाई गई और उनकी जयंती पर अवकाश किया गया। वीपी सिंह ने पहली और अब तक आखिरी बार देश को पहला मुस्लिम गृह मंत्री  (मुफ़्ती मोहम्मद सईद) दिया, वो भी कश्मीरी। प्रधानमंत्री बनने के बाद वीपी सिंह ने सबसे पहले ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए स्वर्ण मंदिर जाकर माफी मांगा और एक बार धीरूभाई अंबानी को लार्सन एंड टुब्रो पर नियंत्रण जमाने से रोक दिया।
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने वाला पहला नेता, जिसे लेफ्ट और राइट दोनों ने समर्थन दिया 
वीपी सिंह देश के पहले ऐसे नेता थे, जिन्होंने भ्रष्टाचार को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति का मुद्दा बनाया और देश का एक आम चुनाव इसी मुद्दे पर लड़ा। जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब वीपी सिंह केंद्रीय वित्त मंत्री थे। वीपी सिंह को यह सूचना मिली कि कई भारतीयों ने अपना काला धन विदेशी बैंकों में कराया है। सूचना की पुष्टि करने और भ्रष्टाचारी भारतीयों का नाम उजागर करने के लिए वीपी सिंह ने अमेरिका की एक जासूस संस्था फ़ेयरफ़ैक्स को नियुक्त कर दिया। इसी बीच 16 अप्रैल 1987 को स्वीडन में एक खबर प्रकाशित हुई कि बोफोर्स तोपों के सौदे में 60 करोड़ रुपये कमीशन के तौर पर दी गई है। भारतीय मीडिया ने बताया कि 60 करोड़ की दलाली में राजीव गांधी की सरकार जाँच से भाग रही है। इसके अलावा पनडुब्बी घोटाले में भी राजीव सरकार पर गंभीर आरोप लगे। इन घोटालों को लेकर राजीव गांधी और वीपी सिंह के बीच मतभेद हुआ और राजा साहब को सरकार से निकाल दिया गया। इसके बाद राजा साहब कांग्रेस और लोकसभा दोनों से इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस से इस्तीफा देते समय वीपी सिंह ने कहा कि “तुम मुझे क्या खरीदोगे, मैं बिल्कुल मुफ्त हूँ।
इस्तीफे के साथ ही वीपी सिंह ईमानदारी के लिए जनता के बीच लोकप्रिय हो गए। वीपी सिंह ने अरुण नेहरु और आरिफ मोह्हमद खान के साथ 1987 में जनमोर्चा पार्टी का गठन कर कांग्रेस के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। 1988 में इलाहाबाद लोकसभा सीट से सांसद बने। 11 अक्टूबर 1988 को जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल का विलय कराकर राष्ट्रीय मोर्चा नामक नई पार्टी बनाई। अंततः 1989 के आम चुनाव की घोषणा हुई, जिसमें राजीव सरकार के खिलाफ जनता के बीच भ्रष्टाचार के मुद्दे को जोर – शोर से उठाया गया। वीपी सिंह ने जनसभाओं में दावा किया कि बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म ‘लोटस’ नामक विदेशी बैंक में जमा कराई गई है और यदि वह सत्ता में आएंगे तो पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे। चुनाव में वी. पी. सिंह की छवि एक ऐसे राजनेता की बन गई, जिसकी ईमानदारी पर कोई शक़ नहीं किया जा सकता। वह युवाओं की टोलियों के साथ रहते और मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते। उन्होंने स्वयं को साधारण व्यक्ति दिखाने के लिए चारपहिया से परहेज किया और बुलेट से अधिकतर प्रचार किया। साथ ही कांग्रेस से नाराज लोगों को भी जनता पार्टी से जमके जोड़ा।
वीपी सिंह ने जनसभाओं में दावा किया कि बोफोर्स तोपों की दलाली की रक़म ‘लोटस’ नामक विदेशी बैंक में जमा कराई गई है और यदि वह सत्ता में आएंगे तो पूरे प्रकरण का ख़ुलासा कर देंगे। चुनाव में वी. पी. सिंह की छवि एक ऐसे राजनेता की बन गई, जिसकी ईमानदारी पर कोई शक़ नहीं किया जा सकता। वह युवाओं की टोलियों के साथ रहते और मोटरसाइकिल पर चुनाव प्रचार करते। उन्होंने स्वयं को साधारण व्यक्ति दिखाने के लिए चारपहिया से परहेज किया और बुलेट से अधिकतर प्रचार किया। साथ ही कांग्रेस से नाराज लोगों को भी जनता पार्टी से जमके जोड़ा। चुनाव में कांग्रेस को मात्र 197 सीटें ही प्राप्त हुईं जबकि वीपी सिंह के सिंह के मोर्चे को 146 सीटें मिली। उस समय भाजपा के पास 86 और लेफ्ट के पास 52 सांसद थे। किसी के  पास बहुमत नहीं था लेकिन कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए लेफ्ट और भाजपा दोनों ने वीपी सिंह को समर्थन दे दिया। अंततः 248 सदस्यों के समर्थन के साथ राजा साहब देश के सातवें प्रधानमंत्री बने।
नहीं झुके, गिर गई सरकार
वीपी सिंह देश ही नहीं बल्कि दुनिया के शायद पहले ऐसे नेता होंगे, जिन्होंने वामपंथ और दक्षिणपंथ को एक मंच पर ला दिया। वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और लेफ्ट दोनों ने समर्थन दिया था, ताकि कांग्रेस को सत्ता में आने से रोका जा सके। भाजपा के समर्थन से सरकार चलाने के बावजूद वी पी सिंह ने कभी सांप्रदायिकता से समझौता नहीं किया। मंडल कमीशन के जवाब में जब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली तो वीपी सिंह की पार्टी (जनता दल) के ही मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रथ को बिहार में रोक दिया और आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया। जनता दल की इस क्रिया से नाराज भाजपा ने जनता दल की केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया और वीपी सिंह की सरकार 10 नवंबर, 1990 को गिर गई।
मंडल कमीशन और सरकार गिरने के सवाल पर एक बार वीपी सिंह ने कहा था कि “हालांकि मेरी टांग टूट गई, लेकिन मैंने गोल दाग ही दिया। कुछ भी किया जाए तो उसकी एक कीमत होती है। ये नहीं होता कि आपने कुछ किया और बाद में अफसोस करने लगे। मंडल लागू किया तो उसका दाम भी देना पड़ा।”
वचन की लाज खातिर दे दिया इस्तीफा
1982 में जब वीपी सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे,तब उन्होंने डाकुओं के आतंक के खिलाफ जनता से वादा कर दिया कि यदि मैं डाकुओं को खत्म नहीं कर पाया तो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दूंगा। पुलिस ने अपना काम करना शुरू कर दिया लेकिन तभी डाकुओं ने 16 लोगों की हत्या कर दी। एक और घटना में डाकुओं ने अनजाने में वीपी सिंह के भाई की भी हत्या कर दी। वीपी सिंह ने अपने वादे के अनुसार मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उनके इस कदम ने उन्हें हीरो बना दिया।
यूपीए के निर्माण में रही अहम भूमिका, अंतिम समय में भी बैठ गए थे धरने पर 
सादगी भरा जीवन जीते हुए वीपी सिंह ने अपना अंतिम समय पेंटिंग्स बनाते और कविताएं लिखते हुए बिताया। अपने अंतिम समय में भी वे राजनैतिक कार्यक्रर्मों में शरीक होते रहे। दिल्ली में झुग्गीवासियों को उजाड़े जाने के खिलाफ वे धरना-प्रदर्शनों में शामिल होते रहे। कैंसर से जूझने के बावजूद भी राजा साहब सांप्रदायिक हिंसा के सवाल पर उपवास पर बैठ गए, जिसका उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा। सक्रिय राजनीति से निकलने के बाद राजा साहब कांग्रेस का समर्थन करते रहे और कहा जाता है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसी गठबंधन के चलते साल 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह पीएम बने। आज उनकी जयंती पर उनकी ही कविता याद की जा रही है कि
मैं और वक्त
काफिले के आगे-आगे चले
चौराहे पर
मैं एक ओर मुड़ा
बाकी वक्त के साथ चले गये

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