देहरादून: गंगा की सफाई के लिए 112 दिनों से आमरण अनशन पर बैठे स्वामी सानंद का गुरुवार को निधन हो गया. स्वामी सानंद जिस संस्था मातृ सदन से जुड़े थे उसी संस्था के दो संत पहले भी गंगा के लिए बलिदान दे चुके हैं. साल 1998 में कनखल में गंगा किनारे स्थापित हुई मातृसदन संस्था गंगा के लिए बलिदान करने वालों की भूमि बन गई है. मातृसदन के अनुयायी आगे भी गंगा पर बलिदान होने के लिए खुद को तत्पर बता रहे हैं. सानंद से पहले कई और संत भी गंगा नदी की सफाई और जल प्रदूषण के मुद्दे पर बलिदान दे चुके हैं. साल 2013 में स्वामी गोकुलानंद नैनीताल के एक गांव के पास जंगल में मृत अवस्था में पड़े मिले थे. वहीं ब्रह्मचारी निगमानंद सरस्वती का 114 दिन अनशन पर रहने के बाद 13 जून 2011 को देहरादून के जौलीग्रांट अस्पताल में देहांत हो गया था. अब स्वामी सानंद ने भी 112 दिन तक अनशन करते हुए खुद को गंगा के लिए समर्पित कर दिया.
स्वामी निगमानंद
स्वामी सानंद से पहले 114 दिन तक अनशन करते हुए स्वामी निगमानंद की भी मौत हुई थी. गंगा में खनन पर रोक लगाने की मांग को लेकर अनशन पर बैठे निगमानंद सरस्वती का 13 जून 2011 को देहरादून के जौलीग्रांट अस्पताल में देहांत हो गया था.
युवा संत निगमानंद की मौत का मामला सात साल बाद भी नहीं खुल पाया है. उनकी मौत को हत्या मानते हुए सीबीआई ने जांच भी की थी, लेकिन उनकी मृत्यु के रहस्य से अब तक पर्दा नहीं उठ सका है. सीबीआई केस में एक बार क्लोजर रिपोर्ट भी लगा चुकी है. हालांकि कोर्ट ने फिर से सीबीआई जांच कराने के आदेश दिए, लेकिन राज्य सरकार इस आदेश पर चुप्पी मारे बैठी है.
स्वामी गोकुलानंद
कनखल में 1998 में निगमानंद के साथ स्वामी गोकुलानंद ने भी क्रशर और खनन माफिया के खिलाफ अभियान शुरू किया था. 2011 में निगमानंद की मृत्यु के बाद स्वामी गोकुलानंद ने गंगा के लिए अनशन किया. साल 2013 में वह एकांतवास के लिए गए थे. उसी दौरान नैनीताल के बामनी में उनका शव मिला था. आरोप लगा था कि उन्हें जहर दिया गया था.
मातृ सदन से जुड़े थे तीनों संत
खास बात यह है कि गंगा नदी के लिए बलिदान देने वाले ये तीनों संत ही संस्था मातृसदन से जुड़े हैं. तीसरे संत के बलिदान के साथ यह संस्था गंगा के लिए जान देने वालों की पहचान बन गई है. मातृ सदन अपनी स्थापना के बाद से ही गंगा नदी की अविरलता और स्वच्छता के लिए आवाज उठा रही है. मातृसदन संस्था के संतों ने जब गंगा में अवैध खनन रोकने की मांग पर संघर्ष शुरू किया तो स्थानीय निवासियों के साथ खनन माफिया के निशाने पर आ गए थे. कईं बार इन संतों पर हमले भी किए गए, लेकिन उन्होंने गंगा की रक्षा के लिए अपना संघर्ष नहीं त्यागा.