आज वीर सावरकर की जयंती है, और इस मौके पर बात करेंगे उस शख्स की, जिसने अंग्रेजी हुकूमत को नाकों चने चबवा दिए। विनायक दामोदर सावरकर, यानी वीर सावरकर, वो नाम जिसे सुनते ही अंग्रेजों के पसीने छूट जाते थे। क्यों? क्योंकि ये सिर्फ एक इंसान नहीं, बल्कि एक ऐसी आग थे, जो अंग्रेजों के साम्राज्य को जलाने की ताकत रखते थे। उनके लेख, उनकी क्रांतिकारी सोच और हिंदुत्व का विचार – ये सब अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गया था।
अंग्रेजों को क्यों लगता था सावरकर से डर?
28 मई, 1883 को नासिक, महाराष्ट्र में जन्मे सावरकर ने जवान होते ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा दिया। उनकी किताब The Indian War of Independence 1857 ने तो हंगामा मचा दिया। इस किताब में सावरकर ने 1857 की क्रांति को पहला स्वतंत्रता संग्राम बताया, जिसे अंग्रेज सिर्फ ‘सिपाही विद्रोह’ कहकर दबाने की कोशिश कर रहे थे। इस किताब ने भारतीयों में आजादी की ऐसी चिंगारी भड़काई कि अंग्रेजों ने इसे बैन कर दिया। सावरकर यहीं नहीं रुके। लंदन जाकर उन्होंने ‘अभिनव भारत’ और ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ बनाई। इनके जरिए वो भारतीय नौजवानों को हथियारों की ट्रेनिंग और क्रांतिकारी विचार बांट रहे थे। अंग्रेजों को डर था कि सावरकर की ये चाल उनकी सल्तनत को उखाड़ फेंकेगी।
सावरकर सिर्फ क्रांतिकारी ही नहीं, बल्कि गजब के विचारक भी थे। उनकी हिंदुत्व की सोच ने भारतीयों को एकजुट किया, जो अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति के लिए बड़ा खतरा था। उनके भाषण और लेखन में ऐसी आग थी कि अंग्रेज सोचते थे, ये शख्स अगर खुला रहा तो उनका साम्राज्य राख हो जाएगा।
कालापानी की सजा का क्या था माजरा?
सावरकर की क्रांतिकारी हरकतों ने अंग्रेजों को इतना परेशान किया कि 1910 में उन्हें लंदन में धर लिया गया। वजह थी नासिक षड्यंत्र कांड, जिसमें नासिक के कलेक्टर जैक्सन की हत्या की साजिश रची गई थी। इस कांड में सावरकर का नाम जोड़ा गया। साथ ही, लंदन में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां, जैसे हथियारों की ट्रेनिंग देना और The Indian War of Independence 1857 जैसा साहित्य बांटना, अंग्रेजों को बर्दाश्त नहीं हुआ। नतीजा? 1911 में सावरकर को दो-दो आजीवन कारावास की सजा ठोक दी गई और भेज दिया गया अंडमान की सेलुलर जेल, यानी कालापानी।
अंग्रेजों को लगा कि कालापानी की यातनाएं सावरकर को तोड़ देंगी। लेकिन सावरकर तो सावरकर थे। वहां भी उन्होंने हार नहीं मानी। जेल की दीवारों पर कविताएं लिखीं, जो बाद में स्वतंत्रता सेनानियों के लिए मशाल बन गईं।
स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर का रोल
सावरकर का योगदान सिर्फ बंदूक चलाने तक सीमित नहीं था। लंदन में मैडम भिकाजी कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर उन्होंने भारत की आजादी की लड़ाई को दुनिया के सामने रखा। The Indian War of Independence 1857 ने स्वतंत्रता संग्राम को नई पहचान दी। ‘अभिनव भारत’ के जरिए उन्होंने कई नौजवानों को क्रांति के लिए तैयार किया। नासिक षड्यंत्र कांड ने तो अंग्रेजों की रूह कंपा दी।
कालापानी की सजा के दौरान भी सावरकर टूटे नहीं। 11 साल तक अमानवीय यातनाएं सहीं, फिर भी अपनी सोच को जिंदा रखा। उनकी किताब हिंदुत्व: हू इज ए हिंदू? ने भारतीय संस्कृति को नया आयाम दिया। हिंदू महासभा के जरिए उन्होंने सामाजिक सुधारों को आजादी की लड़ाई से जोड़ा। अछूतों के उद्धार, औरतों के हक और समाज को एकजुट करने में उनका बड़ा योगदान रहा।
सावरकर की आलोचना का सच
सावरकर की आलोचना आज भी होती है। कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने कालापानी में माफी मांगी, हिंदुत्व की सोच सांप्रदायिक थी और रिहाई के बाद अंग्रेजों से समझौता किया। लेकिन जरा ठहरिए, इन बातों का सच क्या है?
माफी याचिकाएं: सावरकर ने माफी याचिकाएं लिखीं, ये सच है। लेकिन उस वक्त कालापानी की सजा इतनी भयानक थी कि जिंदा रहना भी जंग जीतने जैसा था। बैल की तरह कोल्हू में जुतना, भूखे रहना, एकांत कारावास – ये सब कैदियों को तोड़ने के लिए था। सावरकर की याचिकाएं रणनीति का हिस्सा थीं, जो उस समय कई क्रांतिकारियों ने अपनाई। रिहाई के बाद भी उन्होंने हिंदू महासभा के जरिए आजादी की लड़ाई को मजबूत किया। इसे कमजोरी कहना उनके बलिदान का अपमान है।
हिंदुत्व की विचारधारा: कुछ लोग सावरकर के हिंदुत्व को सांप्रदायिक बताते हैं। लेकिन सावरकर का हिंदुत्व भारत की सांस्कृतिक पहचान को मजबूत करने की बात करता था, न कि किसी धर्म के खिलाफ। उनका मकसद था अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ की नीति को तोड़ना। उन्होंने अछूतों के लिए काम किया, समाज को एकजुट करने की कोशिश की। इसे सांप्रदायिक कहना ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ना है।
अंग्रेजों से सहयोग का आरोप: ये कहना कि सावरकर ने रिहाई के बाद अंग्रेजों का साथ दिया, पूरी तरह गलत है। 1924 में रिहाई के बाद उन्हें रत्नागिरी में नजरबंद रखा गया, जहां उनकी हर हरकत पर नजर थी। फिर भी, उन्होंने सामाजिक सुधारों और हिंदू महासभा के जरिए आजादी की लड़ाई को सपोर्ट किया।
सावरकर की आलोचना क्यों है बेकार?
सावरकर की आलोचना ज्यादातर बिना तथ्यों को समझे या तोड़-मरोड़कर की जाती है। उनकी माफी याचिकाओं को कमजोरी कहना कालापानी की यातनाओं को नजरअंदाज करना है। उनकी हिंदुत्व की सोच को सांप्रदायिक बताना वैचारिक पूर्वाग्रह है। सावरकर ने सशस्त्र क्रांति से लेकर बौद्धिक और सामाजिक सुधारों तक, हर मोर्चे पर आजादी की लड़ाई को मजबूत किया। उनकी आलोचना कभी-कभी राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित होती है, जो उनके योगदान के साथ नाइंसाफी है।
सावरकर: वो आग जो कभी नहीं बुझी
वीर सावरकर वो शख्स थे, जिन्होंने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी। नासिक षड्यंत्र कांड हो या The Indian War of Independence 1857 जैसी रचनाएं, उनकी हर हरकत अंग्रेजों के लिए चुनौती थी। कालापानी की सजा भी उनके हौसले को तोड़ नहीं पाई। उनकी सोच, उनके लेख, और उनकी हिंदुत्व की विचारधारा ने भारतीय समाज को एकजुट और सशक्त किया। सावरकर सिर्फ एक क्रांतिकारी नहीं, बल्कि एक ऐसी मशाल थे, जो आज भी हमें प्रेरित करती है।