पवन पांडेय : प्रिंट से शुरू होने वाली मीडिया का इलेक्ट्रॉनिक तक पहुंचना कुछ वैसा ही था जैसे कि 2जी से 4जी का दौर आना मतलब कि रफ्तार का बहुत तेज हो जाना। उसके बाद आया फेसबुक जिसके बाद दौर शुरू हुआ सोशल मीडिया का। इसके बाद लोगों की असल पहचान के अलावा भी एक पहचान बननेलगी वो थी वर्चुअल पहचान। धीरे-धीरे लोग अपने घर परिवार वालों की फोटो चिपका चिपका कर उन्हे बाहर ले आए। आज बात यहां तक पहुंच गयी है कि पूरा देश और समाज वही है जो वर्चुअल दिखता है। जो कुछ वर्चुअल नहीं है उसका कोई वजूद नहीं है।
डिजिटल मीडिया के इस जमाने में देश का एक बड़ा तबका वर्चुअल देशभक्त बना हुआ है। या यूं कहें
कि एक बड़े वर्ग के लिए देशप्रेम भी वर्चुअल हो गया है। डिजिटली वो सरकार का समर्थन और सवालों
से बचाव करके, सरकार की नीतियों का विरोध करने वालों को धमकी और गाली देकर या धर्म के
ऐसे मुद्दे उठाकर जिसका कि सच्चाई से दूर-दूर तक कोई वास्ता ना हो डिजिटली अपनी देशभक्ति
जाहिर करता है। अब इन वर्चुअल देशभक्तों के वर्चुअल समर्थकों की संख्या भी टिड्डी दलों की भांति
है। जो पल भर में झुंड के झुंड पहुंचतें हैं और उन नीतियों के विरोध करने वालों को पल भर में
डिजिटली तहस नहस करके रख देते हैं। यह सब देखकर पढ़कर और सुनकर एक आम आदमी को
सुकून जरूर मिलता है। उसको लगता है कि इन तथाकथित देशद्रोहियों को हमारे देशभक्तों ने अच्छा
सबक सिखाया।
अब सिक्के का दूसरा पहलू देखते हैं। सरकार का और सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले,
किसी धर्म विशेष के पक्ष में बोलने वाले और सरकार से सवाल करने वाले अपने आपको वर्चुअल
देशभक्तों से ज्यादा बुध्दिमान और बुद्धिजीवी साबित करना चाहते हैं। जैसा कि 2014 के बाद से
बुद्धिजीवी बनने का नया चलन है कि आप मोदी विरोधी छवि बनाओ, बुद्धिजीवी अपने आप मान
लिए जाओगे। वैसे तो अपने स्तर पर देशभक्ति को लेकर इनके अपने तर्क है। मसलन अपने आपको
धर्म निरपेक्ष दिखाना लेकिन किसी धर्म विशेष को निशाना बनाना, जो भी अल्पसंख्यक हैं केवल
उन्ही का पक्ष रखना और उन्ही के लिए आवाज उठाना, सरकार को हमेशा कटघरे में खड़ा करना
भले ही उनकी नीतियां जनता के देशहित में हों या ना हो इत्यादि।
अब अगर इन वर्चुअल देशभक्तों और वर्चुअल बुद्धिजीवियों पर गौर किया जाए तो आप पाएंगे कि
असल में इनको देशहित, देशभक्ति, राष्ट्रप्रेम, नीति, धर्म, मानवता, तर्क आदि चीजों से दूर-दूर तक
कोई लेना देना नहीं होता। ये वर्चुअल देशभक्ति और बुद्धिजीविता दिखाकर केवल लाइक,
सब्सक्राइबर और फॉलोअर लेना चाहते हैं। ये वर्चुअल देशभक्त और बुद्धिजीवी अपनी इस तरह की
छवि देश को दिखाकर उस तरफ के समर्थकों से अपनी डिजिटल पर्फामेंस चमकाते रहते हैं। इनका ना
तो किसी से कोई वैचारिक मतभेद होता है, ना ही सिद्धातों का युद्ध और सहमति, असहमति जैसा
कुछ। लोकतंत्र में जननेता का विरोध और उससे असहमति कभी देशद्रोह नहीं माना जाता और ना ही
जननेता के पक्ष को लेकर सारी मर्यादाओं की सीमाएं तोड़ देना देशप्रेम है। निहित स्वार्थ ही इनका
प्रेम है और और भक्ति भी है।
एक उदाहरण के रूप में देखें तो जो लोग भी डिजिटली सनातन धर्म के कट्टर समर्थक हैं और जो
विरोधी हैं असल में दोनों झूठे हैं। उनके बारे में आप एक बात बहुत ही निश्चितता के साथ कह
सकते हैं कि दोनों वर्गों को सनातन धर्म का कोई ज्ञान नहीं है। दोनो वर्ग केवल एक धर्म विशेष का
सहारा लेकर अपने-अपने फॉलोअर बढ़ाने में लगे हैं। क्योंकि सनातन धर्म में कट्टरता का कोई स्थान
नहीं है ना ही सनातन धर्म कभी किसी को कट्टर होना सिखाती है। दूसरी तरफ बुद्धिजीवी व्यक्ति
कभी किसी के ऊपर अपनी मान्यताएं और विचार नहीं थोपता। वैचारिक स्वतंत्रता में विश्वास ही
बुद्धिजीवियों की पहचान होती है।
अब इस बात को एक नए आयाम से समझने की कोशिश करते हैं। सोशल मीडिया के आने से पहले
अपने नाम और चेहरे को प्रसिद्ध बनाना एक बहुत ही मुश्किल और संघर्ष भरा रास्ता हुआ करता
था। आपके विचार आपके चेहरे और नाम को प्रसिद्धि दिलाते थे। अपने विचारों पर चलना तपस्या
हुआ करती थी। जिसमें कि पब्लिक रिलेशन बनाने के लिए पैसे भी खूब खर्च करने पड़ते थे। लेकिन
सोशल मीडिया आने के बाद से यह काम बहुत ही आसान हो गया है। अब किसी को अपने विचारों
पर चलने की जरूरत नहीं है। यहां पूरी सोशल मीडिया पर दो ही विचार मौजूद हैं। नाम कमाने के
लिए या तो उनके साथ होना है या उनके खिलाफ और जो काम पब्लिक रिलेशन वाले करते थे
जिनका भारी – भरकम बजट हुआ करता था वो काम अब डिजिटल मीडिया का इस्तेमाल करने वाली
यंग जेनरेशन की फौज कर रही है।
असल में ये वो चालाक लोग हैं जो यंग जेनरेशन के दिमाग और भावनाओं के साथ खेलकर उनसे
मुफ्त में अपना पब्लिक रिलेशन का काम करवाते हैं और फायदा उठाते हैं। इसमें से ज्यादा प्रतिशत
भाग युवाओं और नवयुवकों का है जिन्होंने पहली बार इंटरनेट का इस्तेमाल ही सोशल मीडिया के
लिए करना शुरू किया है।
इस छद्म देशभक्ति की जाल को आज सबसे ज्यादा समझने की जरूरत भी हमारी युवापीढ़ी को ही
है। ताकि वो वैचारिक स्वतंत्रता के बारे में समझ सकें,असहमति को स्वीकार कर सकें और वर्चुअल
देशभक्ति नहीं बल्कि असली देशसेवा कर पाएं।
लेखक के बारे में :
लेखक डिजिटल वर्ल्ड के जानकार हैं। एक बहुराष्ट्रीय कंपनी की बिज़नेस डेवलपमेंट विंग के भारत में निदेशक हैं। उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है।