क्या सत्यव्रत के ऐसे तेवर ठीक हैं ?
सत्यव्रत चतुर्वेदी खुलकर कांग्रेस आलाकमान के खिलाफ मैदान में आ गए हैं। कांग्रेस में अपनी राजनीतिक मृत्यु के लिए सिर पर कफन बांधकर सोनिया गांधी को चुनौती दे रहे हैं। कह रहे हैं कि उन्हें पार्टी से बाहर निकाला जाए। मामला औलाद का है। बेटे को टिकट न मिलने पर वह बौखलाने की हद तक बागी सुर अलाप रहे हैं। उनका साफ कहना है कि यदि वह पुत्र मोह के शिकार हैं तो खुद सोनिया भी इसी अवस्था से गुजर रही हैं।
चतुर्वेदी का वह चेहरा याद आ रहा है, जो किसी समय मध्यप्रदेश विधानसभा में देखा था। सपाट चेहरा लिए उन्होंने यकायक विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देने की बात कही थी। तब वह दिग्विजय सिंह से प्रताड़ित होने की सीमा तक परेशान चल रहे थे। लेकिन ऐसा खुलकर गुस्सा तो उन्होंने तब भी नहीं दिखाया था। लेकिन आज वह आगबबूला हो रहे हैं। यहां विधानसभा से इस्तीफा देने के बाद वे सोनिया गांधी के भरोसेमंद लोगों में शुमार हुए। कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे लेकिन जमीन पर उनकी कभी वो पकड़ नहीं रही लिहाजा बुंदेलखंड में वे कांग्रेस का हमेशा ही नुकसान करते रहे।
कॉलेज के दौर में एक गुंडानुमा छात्र मेरा दोस्त हुआ करता था। यकायक उसे लगा कि सुधर जाना चाहिए। उसी समय वहां नये प्रिंसिपल की नियुक्ति की गई थी। दोस्त उनके पास गया। किसी बेहद शरीफ छात्र की तरह बोला, ‘सर, अटेंडेंस कुछ कम हो गई है। टीचर ने कहा है कि आप मुझे परीक्षा में बैठने का मौका दे सकते हैं।’ उसकी पृष्ठभूमि से पूर्णत: अनभिज्ञ प्रिंसिपल ने उसे जमकर लताड़ा। कहा कि कॉलेज न आने का नुकसान उठाना ही होगा। वह सिर झुकाकर विनय करता रहा। प्रत्युत्तर में प्रिंसिपल ने उससे यह तक कह दिया कि यदि वह तुरंत कक्ष से बाहर नहीं गया तो उसे धक्के देकर निकाल देंगे। जाहिर है कि पानी सिर से ऊपर जा चुका था। दोस्त ने खुद बाहर जाकर चपरासियों को बुलाया। कहा, ‘तुम्हारे साहब कह रहे हैं कि मुझे धक्का देकर निकाल दो। है हिम्मत!’ चपरासियों को काटे खून नहीं था। वह दोस्त की कुख्याती के कई उदाहरण खुद ही देख चुके थे। बोले, ‘नौकरी चली जाए, लेकिन भैया जी को हाथ नहीं लगा सकते।’ प्रिंसिपल के लिए इतना ही बहुत था। लेकिन दोस्त के लिए नहीं। पलटकर प्रिंसिपल से बोला, ‘चलिए आप ही मुझे बाहर कीजिए।’ प्रिंसिपल घिघियाए हुए उठे। दोस्त के कंधे पर हाथ रखकर उसे तुरंत बेटे के संबोधन से नवाजा। एक घंटे के भीतर उसकी अटेंडेंस का मामला समाप्त हो चुका था।
चतुर्वेदी को भी बीते कुछ समय से शराफत का भूत चढ़ गया था। वह अपने घोरतम विरोधी दिग्विजय सिंह के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगे थे। ‘पंगत पे संगत’ में सिंह का पूरा साथ दे रहे थे। लेकिन बेटे का टिकट कटते ही उनके सिर से भी शराफत का भूत उतर गया। यह तय है कि ऐसे बगावती तेवर से चतुर्वेदी कांग्रेस को भयाक्रांत नहीं कर सकते, लेकिन यह भी तय है कि इस रुख के चलते वह कम से कम छतरपुर में तो पार्टी को नुकसान पहुंचा ही सकते हैं। बाबूराम चतुवेर्दी और विद्यावती चतुर्वेदी ने अपने जीवनकाल में इतना असर तो बना ही लिया था कि छतरपुर की जनता उनके वंशज के गुस्से में उसका साथ दे सके।
लेकिन क्या ऐसे तेवर ठीक हैं? वह भी उस पार्टी के लिए, जिसने चतुर्वेदी को योग्यता से अधिक बहुत कुछ दिया? वह विधायक रहे। राज्यसभा में भेजे गए। कांग्रेस में सोनिया गांधी के विश्वसनीय लोगों में उनका शुमार किया गया। जबकि व्यक्तिगत क्षमता के लिहाज से देखें तो चतुर्वेदी का छतरपुर से बाहर कोई असर कभी नहीं रहा। कांग्रेस के लिए प्रदेशव्यापी लाभ का सौदा वे कभी नहीं हो सकते थे। इसलिए उनकी यह जिद अनुचित दिखती है कि बेटे को भी पार्टी का टिकट दिया जाए।
खैर, पुत्रमोह में तो महाभारत जैसी विभीषिका हो चुकी है, तो अत्यंत सूक्ष्म स्तरीय महाभारत के हालात बनने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यद्यपि इसका अंत भयानक खून-खराबे वाला नहीं ही होगा, यह तय है। एक सत्यव्रत चतुर्वेदी खेत रहेंगे और बुंदेलखंड की सियासी हवा फिर उसी सुकून के साथ बहने लगेगी, मानो कुछ हुआ ही न हो।
लेकिन हुआ तो कुछ बड़ा भी है। इंद्रजीत पटेल नहीं रहे। वह राजनीति में वफादारों की विलुप्तप्राय: नस्ल के इने-गिने चेहरों के रूप में हमेशा याद आएंगे। नरसिम्हा राव और दिग्विजय सिंह ने जिस समय अर्जुन सिंह को ठिकाने लगाया, तब उनके मंत्रिमंडल के इकलौते चेहरे पटेल ही थे, जो अर्जुन के भोपाल आने पर खुलकर उनसे मिलने और उनका स्वागत करने जाते थे। उन्होंने अर्जुन का सियासी ऋण पूरी निष्ठा से चुकाया। मंत्री पद दांव पर लगाकर भी। ऐसे लोग बिरले ही देखने मिलते हैं। इसलिए पटेल जैसे चेहरे का अब न दिखना हमेशा सालता रहेगा।
(लेखक प्रकाश भटनागर मध्य प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं)