नई दिल्ली: आज यानी 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग नरसंहार की 100वीं बरसी है. देश की आजादी के इतिहास में आज के दिन को एक दुखद घटना के तौर पर याद किया जाता है. दुनिया के इतिहास में शायद ही 13 अप्रैल 1919 से ज्यादा काली तारीख दर्ज हो. जब जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा के लिए जमा हुए हजारों भारतीयों पर अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं.
दरअसल, पंजाब के अमृतसर जिले में ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर के पास स्थित जलियांवाला बाग में मौजूद सभी भारतीय रौलट एक्ट के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे. लेकिन उसी समय उनपर गोलिंया चला दी गईं. अंग्रेजों की गोलीबारी से घबराकर बहुत सी औरतें अपने बच्चों को लेकर जान बचाने के लिए कुएं में कूद गईं. अफरा-तफरी मच गई. लोग जान बचाने के लिए भागने लगे. लेकिन निकास का रास्ता संकरा होने की वजह से कई लोग भगदड़ में कुचले गए और न जाने कितने गोलियों से भून दिए गए.
यह नरसंहार भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में एक काला अध्याय के रूप में मौजूद है. संसद ने जलियांवाला बाग को एक अधिनियम ‘जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक अधिनियम, 1951’ पारित कर राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया था. इस स्मारक का प्रबंधन जलियांवाला बाग राष्ट्रीय स्मारक न्यास (JBNMT) करता है.
घटनाक्रम की पृष्ठभूमि
भारत में बढ़ती क्रांतिकारी गतिविधियों को रोकने के लिए ब्रिटिश भारत की अंग्रेज सरकार ने एक एक्ट पास किया था जिसका नाम रौलेट एक्ट था. इस एक्ट के तहत किसी व्यक्ति को संदेह होने पर गिरफ्तार करने का प्रावाधान था. साथ ही गुप्त मुकदमा चलाकर दंडित भी किया जा सकता था. इसका भारतीयों ने विरोध किया लेकिन उसके बावजूद इस कानून को 21 मार्च 1919 को लागू कर दिया गया.
वहीं दूसरी तरफ 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी का दिन था. अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा रखी गई, जिसमें कुछ नेता भाषण देने वाले थे. पूरे शहर में कर्फ्यू लगा होने के बावजूद बहुत सारे लोग बैसाखी पर परिवार के साथ मेला देखने और घूमने आए थे. जब लोगों ने जनसभा की सुनी तो सभी जलियांवाला बाग जा पहुंचे.
जब नेता बाग में पड़ी रोड़ियों के ढेर पर खड़े हो कर भाषण दे रहे थे तभी डायर ने बाग से निकलने के सारे रास्ते बंद करवा दिए. बाग से बाहर जाने के लिए सिर्फ एक रास्ता खोला गया था जिसपर जनरल डायर ने उस रास्ते पर हथियारबंद गाड़ियां खड़ी करवा दी थीं. इसके बाद वह करीब 100 सिपाहियों के साथ बाग के गेट पर पहुंचा. इनमें से करीब 50 सैनिकों के पास बंदूकें थीं. उन्होंने बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलानी शुरु कर दीं. जिससे डरे लोग बाग में स्थित कुंए में कूदने लगे. गोलीबारी के बाद कुंए से 200 से ज्यादा शव को बरामद किया गया.
वहीं इस घटना के बाद प्रतिघात स्वरूप सरदार उधमसिंह 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में पहुंचे. वहां उन्होंने इस घटना के समय ब्रिटिश लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर मायकल ओ ड्वायर की गोली चलाकर हत्या कर दी. इसके बाद 31 जुलाई 1940 को उन्हें फांसी दे दी गई.