नई दिल्ली: 1984 में इंदिरा की हत्या के बाद जब दिसंबर में लोकसभा चुनाव हुए तो राजीव गांधी को 414 सीटों के साथ सरकार बनाने का मौका मिला. देश के सबसे युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने वित्त मंत्री के तौर पर इंदिरा सरकार में वाणिज्य मंत्री रहे वीपी सिंह इस पद के लिए सबसे बेहतर समझा. राजीव गांधी को जहां नई-नई सत्ता हासिल हुई थी और उन्होने राजनीति के दांव पेच सीखने शुरू ही किए थे. वहीं वीपी सिंह राजनीति के पुराने खिलाड़ी थे.
वो 1969 में कांग्रेस की तरफ से विधानसभा सदस्य बने और 1971 में उत्तर प्रदेश के फूलपूर से सांसद चुने गए थे. फिर 1980 से लेकर 1982 तक वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. यानि जिस वक्त तक राजीव गांधी राजनीति के गुर सीख रहे थे उस समय तक वीपी सिंह राजनीति में माहिर हो चुके थे.
लेकिन राजीव ने उस समय तक सोचा भी नही होगा कि जिस वीपी सिंह पर वो इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंप रहे हैं वही एक दिन उनकी जगह ले लेंगे.
राजीव के वित्त मंत्री वीपी सिंह अपने ठोस फैसलों के लिए जाने जाते थे. अम्बानी, बिरला, किरलोस्कर, टाटा, गोएंका और मोदी जो उस समय भारत के बड़े उधोगपति थे, उनमें से शायद ही कोई ऐसा बचा था जिसके यहां छापा न पड़ा हो और जिससे पूछताछ न की गई हो. भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा था जब इतने बड़े उधोगपतियों पर कार्रवाई हुई हो. यहां तक की कांग्रेस सरकार जिसे लाइसेंस राज कहकर ताने पड़ते थे वो अब रेड राज के नाम से जानी जाने लगी थी. इंडिया टुडे पत्रिका के मुताबिक तो एक मंच पर खुद प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी ये कह दिया था कि बुरे लोगों पर छापे मारी की जा रही है लेकिन बुरे तरीकों से. राजीव के इस बयान पर नाराज वीपी सिंह ने इस्तीफा देने की पेशकश कर दी. लेकिन उस समय राजीव ने उनका इस्तीफा स्वीकार नही किया. हालांकि वो यदि उस समय उनका इस्तीफा स्वीकार कर लेते तो शायद आगे आने वाले सियासी भुचाल से बच जाते.
लेकिन राजीव गांधी के लिए सिर से पानी तो तब गुजर गया, जब वीपी सिंह ने अलाहबाद में एक सम्बोधन के दौरान कहा कि अंग्रेजों ने जब देश को लूटा तो लोगों ने उन्हें बाहर निकाल फेंका अब वो (वीपी सिंह) उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे जो देश का पैसा विदेशों में ले जाते हैं. वीपी सिंह के इस सम्बोधन को अमिताभ बच्चन पर हमले के तौर पर देखा गया था. चुंकि वीपी सिंह उन्हीं के लोकसभा क्षेत्र (अलाहबाद) से ये भाषण दे रहे थे और उस समय अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ ने स्विट्जरलैंड की नागिरकता हासिल की थी. वहीं अमिताभ बच्चन भी राजीव गांधी के बहुत करीबी मित्र थे. इसके अलावा वीपी सिंह की बढ़ती सक्रियता को देख राजीव को अपना नेतृत्व भी कमजोर पड़ता दिखाई देने लगा जिसके बाद वीपी सिंह के खिलाफ उनका एक्शन लेना जरूरी हो गया था. 22 जनवरी 1987 को राजीव गांधी ने वीपी सिंह से वित्त मंत्रालय छीन कर उन्हें विदेश मंत्री बना दिया.
लेकिन हर मोर्चे पर वीपी सिंह, राजीव के आड़े आ रहे थे. विदेश मंत्री रहते हुए भी वीपी सिंह ने कई ऐसे मुद्दों को हवा दी जिनसे राजीव को ही नुकसान हुआ. सेना के लिए हथियारों की खरीद फरोक्त में जो गड़बड़ियां हो रही थी उन पर वीपी सिंह मजबूती के साथ कार्रवाई कर रहे थे. 1987 में स्वीडीश रेडियो पर एक खबर प्रसारित की गई जिसमें इस बात का खुलासा किया गया कि भारतीय सेना को हुई स्वीडीश बोफोर्स गन की बिक्री में बिचौलिए को रिश्वत दी गई.
भारत में सरकार को घेरने के ताक में बैठे विपक्ष में ये बात आग की तरह फैल गई और उन्होने इस पर सरकार को घेरना भी शुरू कर दिया. विदेश मंत्रालय और कहीं न कहीं राजीव से जुड़े इस मामले के बाद वीपी सिंह ने 1987 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया. इस इस्तीफे के पीछे क्या वजह थी, क्या वीपी सिंह कमजोर पड़ रहे राजीव गांधी के नेतृत्व और उनके खिलाफ बन रही जनचेतना का फायदा अपने राजनीतिक लाभ के लिए उठाना चाह रहे थे. इसका जवाब 1989 के चुनाव में मिला, किसी समय पर मिस्टर क्लीन की इमेज पर लोगों को लुभाने वाले राजीव गांधी की जगह अब किसी समय उन्हीं के कैबिनेट में मंत्री रहे वीपी सिंह ने ले ली थी.
1989 के आम चुनाव में राजीव गांधी को भारी नुकसान हुआ और उन्हें केवल 197 सीटें ही हासिल हुई. जनता दल को 142 सीटें और 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में दो सीटें जीतने वाली भाजपा को 86 सीटें मिली. यकीनन ये नतीजा राजीव गांधी का राजनीतिक तजरुबा कम होने कारण आया था. जनता दल को वाम पार्टियों और भाजपा का साथ मिला और वीपी सिंह को प्रधानमंत्री चुना गया.