सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब में कथित फर्जी मुठभेड़ के एक सनसनीखेज मामले में बड़ा फैसला सुनाया है। सर्वोच्च अदालत ने अमृतसर के वेरका-बटाला रोड पर 2015 में हुई गोलीबारी में शामिल नौ पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या के आरोपों को खारिज करने से साफ इनकार कर दिया। कोर्ट ने सख्त लहजे में कहा कि सादे कपड़ों में किसी गाड़ी को घेरकर उस पर सामूहिक गोलीबारी करना किसी भी तरह से पुलिस के कर्तव्य का हिस्सा नहीं हो सकता। इस फैसले ने फर्जी मुठभेड़ के मामलों में पुलिस की जवाबदेही को लेकर एक मजबूत संदेश दिया है।
कोर्ट का सख्त रवैया: ‘न्याय को बाधित करने की कोशिश बर्दाश्त नहीं’
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने अपने आदेश में साफ-साफ कहा कि पुलिसकर्मियों का ये दावा कि वो अपने आधिकारिक कर्तव्यों का पालन कर रहे थे, पूरी तरह बेबुनियाद है। कोर्ट ने इसे ‘न्याय को विफल करने की कोशिश’ करार दिया। पीठ ने ये भी स्पष्ट किया कि इस तरह के गंभीर अपराधों में अभियोजन शुरू करने के लिए किसी पूर्व मंजूरी की जरूरत नहीं पड़ती।
कोर्ट ने पुलिसकर्मियों की उस दलील को भी खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके खिलाफ सीआरपीसी की धारा 197 के तहत अभियोजन की अनुमति नहीं ली गई। पीठ ने कहा, “लोकसेवक का तर्क तब लागू होता है जब उनका काम उनके वैध कर्तव्यों से जुड़ा हो। लेकिन जब कोई पुलिसवाला न्याय को बाधित करने या किसी बेकसूर को मारने के लिए हथियार उठाए, तो ये तर्क बेमानी है।”
क्या है पूरा मामला?
ये मामला 16 जून 2015 को पंजाब के अमृतसर जिले में वेरका-बटाला रोड पर हुई एक गोलीबारी से जुड़ा है। शिकायत के मुताबिक, बोलेरो, इनोवा और वरना गाड़ियों में सवार नौ पुलिसकर्मी, जो सादे कपड़ों में थे, ने एक सफेद हुंडई आई-20 कार को घेर लिया। बिना किसी ठोस चेतावनी के इन पुलिसकर्मियों ने कार पर नजदीक से ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी। इस गोलीबारी में कार में सवार मुखजीत सिंह उर्फ मुखा की मौके पर ही मौत हो गई।
शिकायत में ये भी आरोप लगाया गया कि गोलीबारी के तुरंत बाद पुलिस उपायुक्त (डीसीपी) परमपाल सिंह अतिरिक्त बल के साथ मौके पर पहुंचे। उन्होंने कथित तौर पर सबूत मिटाने की नीयत से कार की नंबर प्लेट हटाने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने डीसीपी पर साक्ष्य नष्ट करने के इस आरोप को भी बहाल रखा है।
हाई कोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के 20 मई 2019 के उस फैसले को भी बरकरार रखा, जिसमें पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस को रद्द करने की उनकी याचिका खारिज कर दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पहली नजर में ये मामला एक ‘संगठित हमले’ जैसा लगता है। कोर्ट ने ये भी माना कि इस केस को ट्रायल के लिए आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त सबूत मौजूद हैं।
अब ये मामला निचली अदालत में ट्रायल के लिए जाएगा। वहां आरोप तय किए जाएंगे और नौ पुलिसकर्मियों के खिलाफ विधिवत सुनवाई शुरू होगी। कोर्ट का ये फैसला उन तमाम मामलों में एक मिसाल बन सकता है, जहां फर्जी मुठभेड़ के नाम पर पुलिसकर्मियों पर गंभीर आरोप लगते हैं।
पुलिस की जवाबदेही पर सवाल
इस पूरे मामले ने पुलिस की कार्यशैली और जवाबदेही पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं। सादे कपड़ों में कार को घेरकर ताबड़तोड़ गोलीबारी और फिर सबूत मिटाने की कोशिश जैसे आरोप पुलिस की मंशा पर शक पैदा करते हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने साफ कर दिया कि कोई भी कानून से ऊपर नहीं है, चाहे वो पुलिसवाला ही क्यों न हो।
कोर्ट ने अपने आदेश में ये भी जाहिर किया कि इस तरह की घटनाएं न सिर्फ कानून-व्यवस्था के लिए खतरा हैं, बल्कि आम लोगों के मन में पुलिस के प्रति भरोसा भी कम करती हैं। ऐसे में, इस केस का ट्रायल न सिर्फ शहीद मुखजीत सिंह के परिवार के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए न्याय की एक उम्मीद लेकर आया है।