नई दिल्ली। सबकुछ अगर किसी स्क्रिप्ट के मुताबिक़ हो रहा है तो बात अलग वरना यही दिख रहा है कि मायावती पूरी तरह ‘ब्लैकमेलिंग’ की राजनीति पर उतर आयी हैं। एक तरफ अखिलेश यादव गठबंधन के बूते भारतीय जनता पार्टी को उखाड़ फेंकने का दम भरते घूम रहे हैं, वहीं सम्मानजनक सीटों के नाम पर मायावती का अखिलेश को फिर धमकाना कुछ और ही इशारा कर रहा है। ताजा धमकी ने उस कयास को भी हवा दे दी है कि लोकसभा चुना और चुनाव बाद सरकार बनवाने के लिए बहन जी की भारतीय जनता पार्टी से अंडरस्टैंडिंग बन रही है।
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गोरखपुर, फूलपुर और उसके बाद कैराना और नूरपुर। उत्तर प्रदेश की इन चारों सीटों पर उपचुनाव में भाजपा की दुर्गति से ही विपक्ष को आक्सीजन मिली। सांप और नेवला दोस्त नहीं हो सकते, जंगल की दुनिया में यह सिद्धांत आज भी शाश्वत है। मगर, राजनीति की दुनिया में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने इन चुनावों में हाथ मिलाकर साबित कर दिया कि यहां कोई सिद्धांत स्थाई नहीं है। कुछ भी हो सकता है। वजूद बचाने के लिए दोनों राजनीतिक दुश्मन दल एक हुए और उन्हें सुखद परिणाम भी मिले। वोटों का गणित ऐसा है कि आगे भी मिल सकते हैं। जाहिर है फिर सपा-बसपा के गठबंधन को अवश्यम्भावी और स्थाई, कम से कम लोकसभा चुनाव तक तो, मान लेना चाहिए।
अखिलेश त्याग चुके हैं सारे अहंकार
यूपी की सियासत में एक ऐतिहासिक तस्वीर खिंची थी जब अखिलेश यादव कैराना और नूरपुर का जश्न मनाने मायावती के घर गए थे। अखिलेश अपने स्वभाव के मुताबिक़ पूरी सरलता के साथ ‘बुआ’ की चाय पीने गए। सारी राजनीतिक दुश्मनी और अहंकार बाहर छोड़ गए। लेकिन, इसके तुरंत बाद हुई मायावती की कॉन्फ्रेंस में साफ़ ऐलान हुआ कि सीटों का बंटवारा तय करेगा कि सपा के साथ बसपा का गठबंधन होगा या नहीं। अपने नेता के ‘मधुर मिलन’ से खुश सपाइयों के लिए यह किसी झटके जैसा था। लेकिन, अखिलेश यादव ने जवाब में झुक के साबित किया कि वह गठबंधन को लेकर बहुत गंभीर हैं। मीडिया के सवालों पर उन्होंने कहा कि हमें आठ-दस सीटें कुर्बान भी करनी पड़ीं तो कोई बात नहीं। भाजपा को हराना मुख्य उद्देश्य है।
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रविवार को मायावती ने लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस करके फिर वही सब बोल डाला। बसपा सुप्रीमो ने कहा -अगर सम्मानजनक सीटें नहीं मिलीं तो उनकी पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी। वहीं भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर उर्फ़ रावण पर भी उन्होंने तंज कस दिया। रावण ने भी पिछले दिनों अखिलेश यादव की तरह उन्हें बुआ कहा था। मायावती ने साफ़ कहा कि लोग राजनीतिक फायदे के लिए मुझसे बुआ-भतीजे का रिश्ता बनाते हैं लेकिन इसका कोई मतलब नहीं है। उनके इस बयान को अखिलेश यादव पर कटाक्ष के तौर पर भी देखा जा सकता है। क्योंकि अखिलेश जिस तरह से बसपा के आगे झुक रहे हैं उसमें उनकी मजबूरी ज्यादा जाहिर हो रही है। रविवार को ही दिल्ली में एक न्यूज़ चैनल के कार्यक्रम में अखिलेश ने अपने स्वभाव के मुताबिक़ ही बोला। कोई अड़ियल रुख नहीं दिखाया लेकिन बसपा से सीटों को लेकर सहमति बन चुकी है ऐसा उनकी बातों से जाहिर नहीं हुआ। हां, गठबंधन के लिए सीटों की कुर्बानी देने में सपा पीछे नहीं हटेगी यह मायावती की ताजा चेतावनी के बाद भी वो दोहरा रहे हैं।
अखिलेश विधानसभा में नहीं करेंगे गठबंधन
आखिर अखिलेश क्यों लगातार झुकते जा रहे हैं। इसे उनकी मजबूरी और भविष्य की रणनीति से जोड़कर देखा जा सकता है। मायावती और अखिलेश दोनों मुख्यमंत्री पद के मूल दावेदार हैं। मायावती प्रधानमंत्री बन जाएं तो बात दीगर है अन्यथा वह अखिलेश यादव को अपने हाथ से मुख्यमंत्री का ताज पहनाएंगी यह असंभव है। हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा एक भी सीट नहीं जीत पायी और उसका वोट पर्सेंटेज भी गिरा था, बावजूद इसके मायावती गठबंधन में अपर हैण्ड रखना चाहती हैं ,दबाव की राजनीति करने में वह माहिर हैं। उनके राजनीतिक गुरु कांशी राम भी ऐसे ही थे। अखिलेश को घर से चुनौती मिली हुई है। चाचा शिवपाल यादव सपा की जड़ खोदने में अलग दल बनाकर दौड़ रहे हैं। मायावती को अच्छी तरह पता है अखिलेश का सपना मुख्यमंत्री की कुर्सी है। अगले विधानसभा चुनाव तक वजूद बनाए रखने के लिए लोकसभा चुनाव में बढ़िया प्रदर्शन जरूरी है। कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव लड़कर अखिलेश ने देख लिया। फायदा दूर उलटा नुकसान हुआ। ऐसे में अखिलेश यादव हाथी की सवारी ही करेंगे। विधानसभा चुनाव को लेकर अपना सपना पूरा करने के लिए
वह गठबंधन में बसपा को ज्यादा से ज्यादा सीटें देने में पीछे नहीं हटेंगे। बंद कमरे में बात करने की बजाय मायावती मीडिया के बीच सीट बंटवारे का मुद्दा अखिलेश पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालने के लिए उछालती हैं। कल को अगर गठबंधन ना हो पाए तो उनके वोटरों के बीच सन्देश साफ़ रहे कि बहन जी ने दलितों की अस्मिता और सम्मान से समझौता नहीं किया।
भाजपा भी डोरे डाल रही है बसपा पर
सपा और बसपा के बीच गठबंधन की तस्वीर आधिकारिक तौर पर साफ़ ना होने के बीच एक नयी संभावना सत्ता के गलियारों में व्यक्त की जा रही है। अगले चुनाव को लेकर भाजपा का पूरा जोर यूं तो दलितों पर है लेकिन मायावती की दलित वोट बैंक पर पकड़ ख़त्म कर पाना आसान नहीं है। जाती वादी राजनीति में फंसे इस प्रदेश के अंदर भाजपा के चुनाव चिन्ह ‘कमल’ का बटन दबाना दलितों के लिए उतना ही मुश्किल है जितना किसी ठाकुर-पंडित के लिए ‘हाथी’ के सामने वाला बटन दबाना। बताया जा रहा है कि भाजपा आलाकमान गठबंधन की हवा निकालने के लिए मायावती को अपनी तरफ करने के प्रयास में है। इसका खाका अभी तैयार नहीं हो सका है लेकिन मायावती को सपा से अलग करके उस रिज़र्व फ़ोर्स में भी रखा जा सकता है, जिसमें शामिल दल चुनाव बाद बहुमत कम पड़ने की स्थिति में भाजपा के साथ आ सकते हैं। जैसे तेलंगाना में टीआरएस को लेकर कहा जा रहा है।