संसद से सड़क तक है जातिवाद का शोर, केजरीवाल ने भी ऐसे में लगाया जोर

विश्वजीत भट्टाचार्य: नई तरह की सियासत का दावा और वादा करके दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए अरविंद केजरीवाल पर भी जातिवादी राजनीति की राह चलने का आरोप लग गया है. दरअसल, ये आरोप लगा है उनकी पार्टी की नामचीन कार्यकर्ता आतिशी मर्लेना के नाम से मर्लेना हटाए जाने से. वहीं, हाल ही में आम आदमी पार्टी छोड़ने का ऐलान कर चुके आशुतोष ने भी बिना नाम लिए केजरीवाल पर जातिवाद की राजनीति करने का आरोप लगा दिया है.

आतिशी और आशुतोष ने केजरीवाल की खोली पोल

पहले हमें जानना होगा कि केजरीवाल पर जातिवाद की राजनीति करने का आरोप आखिर लगा क्यों है. पहले इसी की पड़ताल कर लेते हैं. इसकी पहली वजह आतिशी के नाम से मर्लेना हटाया जाना है. नाम से मर्लेना आखिर हटा क्यों दिया ? आतिशी इस बारे में चुप हैं, लेकिन आम आदमी पार्टी के लोग कह रहे हैं कि पार्टी ने इसके लिए आतिशी को नहीं कहा था. वहीं, केजरीवाल के तमाम करीबी ये बताने में पीछे नहीं हट रहे कि आतिशी का सरनेम दरअसल सिंह है और वो राजपूत हैं. वहीं, आशुतोष ने ट्वीट कर कहा है कि जब उन्हें केजरीवाल ने चुनावी मैदान में उतारा था, तो उनके सरनेम “गुप्ता” को उजागर किया गया. जबकि, पत्रकारिता के लंबे करियर में उन्होंने कभी सरनेम उजागर नहीं किया था. आशुतोष का कहना है कि जब उन्होंने इस पर आपत्ति की, तो कहा गया कि आपके चुनाव क्षेत्र में काफी गुप्ता हैं और उनके वोट चाहिए. साफ है कि जातिवाद की राजनीति में केजरीवाल काफी पहले ही उतर गए थे. अब आतिशी का मामला सामने आया, तो आशुतोष की जुबान भी खुल गई.

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बीजेपी भी जमकर कर रही जातिवाद की राजनीति

अब जरा केंद्र और देश के करीब 70 फीसदी हिस्से पर काबिज बीजेपी की जातिवादी राजनीति का नजारा लेते हैं. संसद के हाल ही में हुए मॉनसून सत्र में दो बिल की बड़ी चर्चा थी. लोकसभा में एससी/एसटी एक्ट में संशोधन पर चर्चा हो रही थी, तो वहीं राज्यसभा में ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दिए जाने का बिल पास हो रहा था. दोनों बिल संसद ने पास कर दिए. पहले बात करते हैं एससी/एसटी एक्ट में संशोधन और जातिवाद की राजनीति के बीच संबंध की. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट के तहत केस दर्ज होने पर बिना जांच के गिरफ्तार न किए जाने का निर्देश दिया था.

इसका नेताओं ने खूब विरोध किया और चुनाव में बस 8 महीने का वक्त बचा देखकर वही बीजेपी कोर्ट के आदेश की काट में संशोधन ले आई, जो शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के पास कराए गए बिल को लेकर कांग्रेस पर हमेशा निशाना साधती है. वहीं, कांग्रेस ये मांग कर रही है कि इस एक्ट को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए, ताकि अदालत इस पर विचार न कर सके. वहीं, पिछड़ा आयोग को संवैधानिक दर्जा दिलाकर बीजेपी खुद को इस वर्ग का सबसे बड़ा हितकारी बता रही है.

हर तरफ जातिवाद की गूंज

संसद के बाहर भी सियासत में जातिवाद की गूंज हर तरफ सुनाई पड़ती है. यूपी, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में आए दिन आरक्षण के नाम पर आंदोलन हो रहे हैं और सरकारें इस तरह की मांगों को उठाने वालों के सामने नतमस्तक हैं. खुद पीएम नरेंद्र मोदी गाहे-बगाहे अपनी जनसभाओं में ये बताना नहीं भूलते कि वो पिछड़ा वर्ग से हैं और इस वजह से उनके परिवार को किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ा है और आज भी सियासत में उनको लोग टिकने नहीं देना चाहते.

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90 के दशक से उभरा जातिवाद, बिहार है सबसे बड़ा उदाहरण

जातिवाद तो राजनीति में पहले भी था, लेकिन 90 के दशक में मंडल और कमंडल की राजनीति से ये और बढ़ा है. मंडल आयोग की रिपोर्ट का ही ये कमाल है कि ज्यादातर राज्यों में पिछड़े वर्ग का सीएम है और पीएम भी पिछड़ी जाति के हैं. कुल मिलाकर हालात ये हैं कि चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, जाति उसका मूल तत्व रहती है. वैसे जातिवादी राजनीति की बात करें, तो इसे प्रश्रय देने का सबसे बड़ा काम बिहार में हुआ है. बता दें कि बिहार में दुनिया का पहला गणतंत्र था और वो भी 599 ईसा पूर्व से पहले, लेकिन मौजूदा बिहार को देखें, तो आजादी के पहले से ही जातिवाद और राजनीति का घालमेल वहां हो चुका था.

श्रीकृष्ण सिंह सीएम बने, तो वो भूमिहार थे, लेकिन 2 अप्रैल 1946 से 31 जनवरी 1961 तक सत्ता में रहने के बाद भूमिहार फिर लौटकर नहीं आ सके. इसके बाद ब्राह्मणों के नेता विनोदानंद झा ने ढाई साल तक बिहार में सत्ता संभाली.उसी दौरान कर्पूरी ठाकुर दलितों और पिछड़ों की आवाज बनने लगे और सीएम भी बने. दौर बदला और बिहार की सियासत पर जातिवाद का जाल और कसता गया. “भूराबाल साफ करो” के नारे के साथ जेपी आंदोलन की तिकड़ी यानी लालू यादव, शरद यादव और नीतीश कुमार राजनीति के नए सितारे बन गए और फिलहाल पिछड़ी जाति के लालू और नीतीश के बीच ही बिहार की सत्ता की चाबी आने-जाने लगी.

तो साफ बात ये कि जब हर नेता जातिवाद का जहर राजनीति में घोल रहा हो, तो केजरीवाल भी मौका और दस्तूर देखकर इस दलदल में उतर गए. क्योंकि जातिवाद जब सिर चढ़कर बोल रहा हो, तो उससे बचकर रहना भला कौन चाहेगा.

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