वाजपेयी की कविताओं में जीवन और मृत्यु का संघर्ष दिखाई देता है

नई दिल्ली: भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तबीयत ठीक नहीं है. वाजपेयी काफी लंबे समय से दिल्ली के एम्स अस्पताल में भर्ती हैं. एम्स के मुताबिक, पिछले 24 घंटे में उनकी हालत काफी बिगड़ी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू समेत कई बड़े नेताओं ने एम्स पहुंचकर वाजपेयी का हाल जाना.

अटल बिहारी वाजपेयी एक सफल नेता होने के साथ ही एक कवि भी रहे. वे हमेशा अपने भाषणों में अपनी कविताएं सुनाया करते थे.उन्होंने कई कविताएं लिखीं और समय-दर-समय उन्हें संसद और दूसरे मंचों से पढ़ा भी. उनका कविता संग्रह ‘मेरी इक्वावन कविताएं’ उनके समर्थकों में खासा लोकप्रिय है.

इस मौके पर आईए वाजपेयी की कुछ कविताओं पर नजर डालते हैं। उनकी कविताओं में उनका अनुभव झलकता है, राजनीति से कभी बेचैन दिखाई पड़ते हैं तो कभी आज के हालात पर दुखी। उनकी कविताओं में जीवन और मृत्यु का संघर्ष दिखाई देता है।

1. मौत से ठन गई

ठन गई
मौत से ठन गई.
जूझने का मेरा इरादा न था,

मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,

यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,

ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,

लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?
तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,

सामने वार कर फिर मुझे आज़मा
मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,

शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर
बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,

दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,

न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,

आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,

नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,

देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई
मौत से ठन गई

2: कदम मिलाकर चलना होगा

बाधाएं आती हैं आएं

घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,

सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,

आग लगाकर जलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.

हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,

उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,

उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.
उजियारे में, अंधकार में,

कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,

अरमानों को ढलना होगा.
कदम मिलाकर चलना होगा.

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,

सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,

सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा.

कदम मिलाकर चलना होगा.
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,

प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,

परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,

जलना होगा, गलना होगा.
क़दम मिलाकर चलना होगा.

3. दो अनुभूतियां

पहली अनुभूति

बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं

गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर

अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं

पीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं

गीत नहीं गाता हूं

-दूसरी अनुभूति

गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर

पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात

प्राची में अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूं

टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी

हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं

3. गीत नया गाता हूं

आओ फिर से दिया जलाएं:
आओ फिर से दिया जलाएं
भरी दुपहरी में अंधियारा

सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के मोहजाल में-
आने वाला कल न भुलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएं।
आओ फिर से दिया जलाएं

4. ऊंचाई

ऊंचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।

जमती है सिर्फ बर्फ,
जो, कफ़न की तरह सफेद और,
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी,
जिसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

ऐसी ऊंचाई,
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे,
ऐसी ऊंचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे,
अभिनंदन की अधिकारी है,
आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

किन्तु कोई गौरैया,
वहां नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

सच्चाई यह है कि
केवल ऊंचाई ही काफ़ी नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
परिवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है।
ऊंचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।

जो जितना ऊंचा,
उतना एकाकी होता है,
हर भार को स्वयं ढोता है,
चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
मन ही मन रोता है।

ज़रूरी यह है कि
ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो,
जिससे मनुष्य,
ठूंठ सा खड़ा न रहे,
औरों से घुले-मिले,
किसी को साथ ले,
किसी के संग चले।

भीड़ में खो जाना,
यादों में डूब जाना,
स्वयं को भूल जाना,
अस्तित्व को अर्थ,
जीवन को सुगंध देता है।

धरती को बौनों की नहीं,
ऊंचे कद के इंसानों की जरूरत है।
इतने ऊंचे कि आसमान छू लें,
नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

किन्तु इतने ऊंचे भी नहीं,
कि पांव तले दूब ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई कली न खिले।

न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊंचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूं,
इतनी रुखाई कभी मत देना

5. आओ मन की गांठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,
घास फूस का घर डंडे पर,
गोबर से लीपे आंगन में,
तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर.
मां के मुंह से रामायण के दोहे चौपाई रस घोलें,
आओ मन की गांठें खोलें.

बाबा की बैठक में बिछी चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,
मिलने वालों के मन में असमंजस, जाऊं या ना जाऊं,
माथे तिलक, आंख पर ऐनक, पोथी खुली स्वंय से बोलें,
आओ मन की गांठें खोलें.

सरस्वती की देख साधना,
लक्ष्मी ने संबंध ना जोड़ा,
मिट्टी ने माथे के चंदन बनने का संकल्प ना तोड़ा,
नये वर्ष की अगवानी में,
टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें,
आओ मन की गांठें खोलें.

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