नई दिल्ली: लोकसभा में सोमवार को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन विधेयक, 2018 पारित हो गया. इस संशोधन के जरिए सर्वोच्च न्यायालय का वह आदेश निष्प्रभावी हो जाएगा, जिसके तहत एससी/एसटी अत्याचार निवारण के मामले में आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी.
यह संशोधन विधेयक लोकसभा में केंद्रीय न्याय एवं आधिकारिता मंत्री थावर चंद गहलोत ने पिछले सप्ताह पेश किया था. सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दाखिल कर शीर्ष अदालत के आदेश को निरस्त कर एससी/एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के मूल प्रावधानों को बरकरार रखने की गुहार लगाई थी.
गहलोत ने लोकसभा में इस विधेयक पर चर्चा के दौरान कहा, “सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ वहां समीक्षा याचिका दाखिल की थी. उस आदेश में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) विधेयक, 1989 के वास्तविक प्रावधानों को कमजोर बनाया गया था.”
उन्होंने कहा, “अदालत के आदेश के बाद, एससी/एसटी संगठनों ने ‘भारत बंद’ बुलाया था, जिसमें दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं हुई थीं. अदालत के आदेश में कहा गया था कि आरोपी की गिरफ्तारी के लिए वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक(एसएसपी) की मंजूरी जरूरी होगी. लेकिन यह संभव नहीं है, क्योंकि भारत के अधिकतर जगहों पर एसएसपी नहीं हैं.”
उन्होंने बताया कि उनके गृह प्रदेश मध्यप्रदेश में, एसएसपी केवल ग्वालियर, भोपाल और इंदौर में ही पदस्थ हैं. उन्होंने सदस्यों से भी विधेयक का समर्थन करने का आग्रह किया.
विधेयक पर बहस का जवाब देते हुए गहलोत ने कांग्रसे से कहा कि अगर उनको एससी/एसटी के अधिकारों की रक्षा की चिंता थी तो उन्होंने 1989 में कानून के पारित होने के बाद उसे मजबूत क्यों नहीं बनाया.
मंत्री ने कहा कि अधिनियम के तहत अब 47 अपराधों को शामिल किया गया है, जबकि पहले इसमें सिर्फ 22 अपराधों को शामिल किया गया था. गहलोत ने कहा, “हमने विधेयक को लाने में देर नहीं की. विपक्ष ने देश में अफवाह फैलाने की कोशिश की कि हम एससी/एसटी विरोधी हैं और विधेयक में विलंब कर रहे हैं.”
लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सदन में विधेयक लाने में नरेंद्र मोदी सरकार को 3-4 महीने लग गए. सरकार इतने दिनों तक इस संबंध में अध्यादेश क्यों नहीं लाई.
उन्होंने कहा, “अगर सरकार कॉर्पोरेट के पक्ष में विभिन्न मुद्दों पर छह अध्यादेश ला सकती है, तो सरकार को इस मामले में भी सातवां अध्यादेश लाना चाहिए था. लेकिन दुर्भाग्य से सरकार देश के 25 प्रतिशत आबादी के अधिकारों के लिए अध्यादेश नहीं ला सकी. अब चौतरफा दबाव के बाद विधेयक लाया गया.”