अटल थे, अटल हैं, अटल रहेंगे !

अटल बिहारी वाजपेयी साधारण परिवार में जन्मे थे. उन्होंने  साधारण से प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की थी. उनके पिता का नाम कृष्ण बिहारी वाजपेयी और दादा का नाम पंडित श्याम लाल वाजपेयी था. उन्होंने सारे देश के सामने एक बार कहा था- ‘मैं अटल तो हूं पर ‘बिहारी’ नहीं हूं. तब लोगों ने इसे अजीब ढंग से लिया था.

लोगों को लगा कि वे ‘बिहार’ का अपमान कर रहे हैं. वस्तुत: उन्होंने कहा था कि असल में उनके पिता का नाम ‘वसंत – विहार’, ‘श्याम-विहार’, ‘यमुना विहार’ की तरह ही ‘विहार’ है, तो उनका मूल नाम है- अटल विहारी. ये तो बीबीसी लंदन ने शुरू कर दिया ‘ए.बी.वाजपेयी’ तो सब इसी पर चल पड़े.

 

संसद में एक बार अटल जी के लिए किसी ने कहा कि ‘वे आदमी तो अच्छे हैं लेकिन पार्टी ठीक नहीं है.’ इस पर अटल जी ने अपने भाषण में कहा भी था कि, ‘मुझसे कहा जाता है कि मैं आदमी तो अच्छा हूं, लेकिन पार्टी ठीक नहीं है, मैं कहता हूं कि मैं भी कांग्रेस में होता अगर वह विभाजन की जिम्मेदार नहीं होती’

यूं तो वे भी पुराने कांग्रेसी थे. पहले सभी कांग्रेसी थे. आरंभिक दिनों में विजय राजे सिंधिया भी कांग्रेस में थी, जिवाजी राव सिंधिया भी कांग्रेस में थे. कांग्रेसी इस आरोप का उत्तर नहीं दे पाएंगे, क्योंकि कांग्रेस ही शायद कांग्रेस का इतिहास नहीं जानती. उनपर जो सबसे पहला आरंभिक प्रभाव था वो कई कवियों का रहा. मध्य प्रदेश के ही कई कवि अटल विहारी वाजपेयी के कालेज में थे.

 

डॉक्टर शिव मंगल सिंह ‘सुमन’ एक प्रगतिशील कवि और लेखक भी थे. अटल जी ने लाल किले से उनकी कविताएं भी पढ़ी हैं और अटल जी की जो बहुत मशहूर कविता हैं- ‘हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा, और ‘काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं.’. उस पर ‘सुमन जी’ का प्रभाव है. इसी तरह की एक और कविता- ‘गीत नया गाता हूं’.

उनकी भाषा पर भी ‘सुमन जी’ का प्रभाव है. दिलचस्प बात ये है कि ‘सुमन जी’ की भाषण शैली और कविता पाठ में ‘निराला जी’ का प्रभाव है. ये बात मुझे नीरज जी ने एक बार बताई थी कि सुमन जी निराला जी की शैली में कविता पढ़ते हैं.

महत्वपूर्ण बात ये है कि अटल जी भारतीय राजनीति में नेहरु जी के बाद एक अनूठे नक्षत्र हैं. यहां तक कि जब अटल जी पहली बार संसद में पहुंचे तो उनका भाषण सुन कर नेहरु जी ने कहा था- यह नौजवान नहीं मैं भारत के ‘भावी प्रधानमंत्री’ का भाषण सुन रहा हूं. ये बात उनके ‘बॉयोडाटा’ में लिखी हुई है. ये बात कहना कोई साधारण बात नहीं है. यह एक द्रष्टा की दृष्टि है. हीरे की परख जौहरी ही कर सकता है. बात ये है कि प्रतिभा की परख ही प्रतिभा ही कर सकती है.

 

नेहरु जी ने पहले ही दिन देख लिया कि भारत का भावी प्रधानमंत्री बोल रहा है. अटल जी प्रधानमंत्री बने, एक बार नहीं, दो बार नहीं, तीन बार प्रधानमंत्री बने. उन्होंने जवाहर लाल जी और इंदिरा जी के रिकॉर्ड को भी तोड़ा. भारत में ऐसा कोई प्रधानमंत्री नहीं हुआ, शायद कोई हो, जो तीन – तीन बार प्रधानमंत्री बने. अटल जी का राजनीति में कभी कोई ‘ग्रुप’ था ही नहीं.

अटल जी तो ‘भगवान राम’ की तरह हैं, जिनके पास ‘हनुमान’ भी अपना नहीं किसी और का है. हनुमान ‘सुग्रीव’ के थे. मसलन- प्रमोद महाजन थे, जो लालकृष्ण आडवाणी के आदमी माने जाते थे, मगर भगत रहे अटलजी के. आप अटल जी की एक और विशेषता देखें, अटल जी के जो सबसे बड़े सलाहकार थे वे कांग्रेस के दिग्गज नेता द्वारका प्रसाद मिश्र के बेटे हैं. अटल जी के सबसे अच्छे मित्र थे शहाबुद्दीन, जिन्हें अटल जी राजनीति में लाए, वे आईएफएस और मुसलमान हैं. विश्व में किसी राजनेता का ऐसा नैतिक साहस है कि, बिल क्लिंटन का भी नहीं, कि किसी से उनके क्या संबंध हैं, आध्यात्मिक संबंध, प्रेम संबंध या भावनात्मक संबंध, वे सब जग जाहिर है.

 

शीला कौल जो उनके साथ रहती थीं.. आप इसे मित्रता कहे, प्रेम संबंध कहें, मीरा का संबंध कहें, या फिर राधा का संबंध कहें, लिव इन रिलेशन कहें, लेकिन मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं कि वे जो करते थे खुलकर करते, वही करते जो उन्हें उचित लगता. कृष्ण की तरह करते, जैसे कृष्ण ने सत्यभामा और रुक्मिणी के होते हुए राधा के संबंध को छुपाया नहीं.

जब वे कष्ट में रहे तब तो मैंने उन्हें रायसीना रोड के सुधीर के ढाबे से ‘दाल’ मंगाकर भी खाते देखा है. तब तो भारत वर्ष में कहीं से उनका कोई रिश्तेदार नहीं आया. अब तो अनूप मिश्रा और करुणा शर्मा भी देखी जाती हैं, जो रिश्तेदार हैं. परिवार जन भी आ गए, प्रधानमंत्री जो बन गए. पर तब एक मात्र शीला जी रही जो सुख दुख में उनके साथ खड़ी थीं. लेकिन किसी ने इसे देखा नहीं. हिंदुस्तान के किसी राजनीतिज्ञ ने, प्रेस ने इस विषय को उठाया भी नहीं, कि प्रधानमंत्री आवास में एक महिला भी रहती है.

मुझे याद है पहली बार प्रधानमंत्री बनने पर जब मैं उन्हें बधाई देने गया था तो सो ‘ऊषा सिंहल’ के साथ गया था. ऊषा दीदी माननीय अशोक सिंहल जी की इकलौती बहन थीं. इनके सात भाई थे, अशोक भैया, आनंद भैया, पूर्व डीजी पुलिस और ब्लड प्रेशर सिंहल के नाम से मशहूर भारतेंदु प्रकाश सिंहल, विचारक, चिंतक और लेखक, उद्योग पति विवेक सिंहल, और अब नहीं रहे पीयूष सिंहल- इन सात भाइयों की एक बहन. वे कहती थीं, ‘ये सात भैया एक तरफ और राज भैया एक तरफ’.

 

मुझे ऊषा जी अपना भाई मानती थीं और राखी बांधती रहीं. ऊषा जी अटल जी को भी राखी बांधती रही हैं. उन्हें पतरकु (दुबले पतले वाले) भैया कहती रहीं. उस समय अटल जी के सेवक सर्वस्व थे शिवकुमार ‘मुंछड़ जी’. दीदी ने शिवकुमार जी के सामने ही एक बार पूछ लिया अटल जी से कि ‘क्या शीला जी भी यहीं रहती हैं पतरकू भैया!’ तो अटल जी शर्माने लगे और कहने लगे- ‘हां, यहीं रहती हैं ऊषा बहिन’.

लेकिन ये विश्व के इतिहास की एक अनोखी घटना है. क्या कोई ऐसी और घटना बता सकता है, जहां प्रधानमंत्री के घर में एक अनजान महिला जो उनकी पत्नी नहीं हो उसके बाद भी अपने दत्तक दामाद के साथ वहीं रहती हों. रंजन भट्टाचार्य के साथ दत्तक बेटी भी. तो प्रेस ने क्यों नहीं उठाया ये सवाल ? कभी किसी ने ध्यान भी नहीं दिया.

जब मैंने प्रभाष जोशी जी पर लेख लिखा तो करीब 160 से ज्यादा पत्र मेरे पास आए. इनमें शरद पवार और काजमी जैसे लोगों के पत्र भी हैं, जिनमें लिखा है कि आप में अपने पिता की ही तरह हंस की प्रवृत्ति है कि दूध और जल को अलग कर देते हैं. कंकड़ से मोती चुनने और नीर क्षीर विवेक का.

 

ये सब जो तुलनात्मक अध्ययन है वो मैं इसलिए बता रहा हूं कि कांग्रेस क्या, कोई पार्टी क्या, कोई मीडिया क्या, ये मुद्दा कोई इसलिए नहीं उठा पाया क्योंकि ये जो सज्जन थे जवाहर लाल नेहरू के साले, कमला नेहरू जी के भाई थे. उन्हीं की पत्नी थीं शीला कौल. कांग्रेस इस मुद्दे को उठा नहीं सकती थी, लेकिन प्रेस ने भी नहीं उठाया. इसकी वजह आपने नहीं सोची होगी.

विचार करें, क्योंकि अटल जी का ‘चरित्र’ सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था. उनके चरित्र पर कोई धब्बा नहीं है. उसके बावजूद उन्होंने अशोक सिंहल जी के डांटने पर एक बार संसद में कहा था, ” मैं कुंआरा तो हूं, ब्रह्मचारी नहीं।” इसे कहने के लिए बेहद नैतिक साहस चाहिए. प्रो.रज्जू भैया ने भी कहा था कि ये कहने के लिए बहुत नैतिक साहस चाहिए। लेकिन अशोक सिंहल जी को ये बात बुरी लगी थी.

उन्होंने कहा- ये क्या कोई कहने वाली बात है कि ‘मैं कुआंरा तो हूं, ब्रह्मचारी नहीं, यानी चरित्रहीन हूं.’ मगर ये बात नहीं है. जयप्रकाश नारायण ने एक बार गांधी जी के सामने शपथ ली, मैं प्रभावती जी के साथ बिस्तर पर नहीं सोऊंगा. बह्मचर्य का पालन करूंगा. पर प्रकाश झा ने एक लंबी फिल्म जयप्रकाश जी पर बनाई थी. उस पर मैंने पचासों आपत्तियां की थीं और बहुत अखबारबाजी भी हुई. पार्लियामेंट में भी हंगामा हुआ. इस फिल्म में एक इंटरव्यू में प्रकाश झा ने जयप्रकाश जी के मुंह से कहलवाया कि -‘मैं ऐसा नहीं रह पाया. बह्मचर्य का वैसा पालन नहीं कर पाया जैसा प्रभावती करती रहीं’. इसका आशय था कि जय बाबू कहीं-कहीं स्खलित भी हुए मैंने इस पर आपत्ति भी की थी. लेकिन अटल जी का ये नैतिक साहस.

गांधी जी को हम लोग बहुत ज्यादा मानते हैं. उनके इस बात के लिए बहुत सम्मान देते हैं. उनके नैतिक साहस का सम्मान करते हैं. गांधी जी की आत्मकथा की बात करते हैं. उनके ‘सत्य के प्रयोग’ की बहुत बात करते हैं, लेकिन अटल जी के अनुभव या कहें कि एक्सपीरिएंस विद ट्रुथ पर आज तक कोई बात नहीं हुई. शायद ही कोई कर पाए. फिर भी उन्होंने देखा जाएतो ये सब कहा.

ये हिम्मत की बात है. साहस का विषय है कि भारत की राजनीति में पहला पुरुष है जिसके घर में एक महिला मित्र है. जो महिला है उनसे उनका क्या रिश्ता है ये पूछने का साहस किसी के पास नहीं है!

राजनीति में उनका कोई गुरु नहीं है. हालांकि लोग कहते हैं कि उनके गुरु ‘अमुक’ रहे हैं कभी लोग बलराज मधोक को बता देते हैं, लोग कहते हैं कि मधोक जी ही उन्हें जनसंघ में ले आए. जबकि पहले से ही बलराज मधोक उन पर आरोप लगाते रहे कि वे जनसंघ में ‘कांग्रेस के एजेंट’ थे. जनसंघ में वे ‘जवाहर लाल नेहरू के आदमी’ हैं. पर आज बलराज मधोक दिल्ली में किसी को हैंड पंप से पानी खीचते नजर आते हैं. जनसंघ के संस्थापक मधोक जी रहे और तीन बार प्रधानमंत्री बने अटल जी! तो इस आदमी में कोई न कोई खूबी तो ऐसी होगी.

इन खूबियों को जरा देखिए और सोचिए. सबसे बड़ी खूबी कि गोविंदाचार्य ने कह दिया कि आप उन्हें ‘मुखौटा’ कह सकते हैं. वे ‘मुखौटा’ थे कि नहीं, इस बारे में आगे जाकर भारतीय जनता विश्लेषण करे. इसलिए ये बात तो आप इतिहास पर छोड़िए.

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