बुआ को बर्दाश्त होगा यह ‘द ग्रेट चमार भतीजा’ ?

नई दिल्ली : मूंछों पर ताव देने वाला, बुलेट से चलने वाला, अपनी जाति को नीचे न समझ कर उस पर गर्व करके अपने आप को दी ग्रेट चमार कहने वाला चंद्रशेखर आजाद ऊर्फ रावण पश्चिमी उत्तर प्रदेश का एक उभरता हुआ दलित चेहरा माना जा सकता है. दलित युवाओं में चंद्रशेखर ने अपनी अच्छी-खासी पैठ बना रखी है. सहारनपुर में हुए जातीय दंगों के बाद रावण दलितों के लिए एक सम्मान का प्रतीक बन गया है. सहारनपुर के दलित युवा अब मूंछें रखने लगे हैं जिसे अब तक कथित तौर के ऊंची जाति के लोग ही रखते थे.

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वे अब अपने आप को चमार कहने में जरा भी नहीं हिचकिचाते. वहीं राजनैतिक पार्टियां रावण को उभरते हुए दलित नेता के रूप में देख रहीं हैं. इस बात का अंदाजा रावण की रिहाई से लगाया जा सकता है. खुद रावण का भी कहना है कि बीजेपी ने उन्हें सिर्फ इसी लिए रिहा किया है ताकि वह अपने आप को दलितों का हितैषी दिखा सके. चंद्रशेखर का कहना है कि उनका संबंध किसी भी राजनैतिक पार्टी से नहीं है, वह बाबा साहब अंबेडकर और कांशीराम के आदर्शों पर चलने का प्रयास कर रहें हैं.

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फोटो साभारः Google

1995 में जब बसपा ने उत्तर प्रदेश में पहली बार सरकार बनाई थी तब से लेकर अब तक दलितों का इकलौता चेहरा बसपा सुप्रीमो मायावती थीं. मायावती के बारे में रावण का कहना है कि “बुआ जी ने काफी संघर्ष किया है और दलितों के लिए एक बड़ी लड़ाई लड़ी है, उनका हमेशा सम्मान रहेगा, और जो भी पार्टी बीजेपी को हराएगी वह उसी के साथ हैं”. वहीं मायावती शायद रावण को अपने लिए शुरू से ही खतरा मानती रही हैं, शायद इसीलिए सहारनपुर दंगों के बाद भीम आर्मी का नाम बसपा के साथ जोड़े जाने पर उन्होंने भीम आर्मी को बीजेपी का एजेंट बताया था. देखने वाली बात यह है कि अभी तक चंद्रशेखर ने किसी भी पार्टी का समर्थन नहीं किया है और न ही किसी पार्टी ने उन्हें समर्थन दिया है.

दलितों का वोट पूरी तरह मायावती को मिलना मुश्किल हो गया है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 206 सीटों पर जीत दर्ज करके सरकार बनाई थी वहीं 2012 के विधानसभा चुनाव में सिर्फ 80 सीटें ही जीती और 2017 के विधानसभा चुनाव में मात्र 19 सीटों पर सिमट गई. इसी का नतीजा रहा कि फूलपुर और गोरखपुर में हुए उपचुनाव के समय मायावती ने पहली बार अपनी विचारधारा से हटकर सपा के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा. ऐसे में अगर रावण बसपा में शामिल होते हैं तो इसका सीधा फायदा बसपा को ही होगा. अभी तक मायावती के कद का कोई भी नेता बसपा में नहीं है. अगर मायावती ने रावण को समर्थन दिया तो जाहिर है कि बसपा में चंद्रशेखर का कद काफी ऊंचा हो जाएगा.

कहा जाए तो मायावती के बाद बसपा में रावण ही प्रमुख दलित चेहरा होंगे. इतिहास गवाह है कि बसपा में जो भी चेहरा मायावती से ज्यादा अपनी पकड़ दलितों पर बनाने की कोशिश करता है वह पार्टी से किसी न किसी कारण निकल जाता है. नसीमुद्दीन सिद्दीकी, स्वामी प्रसाद मौर्य इसके उदाहरण हैं. जो बसपा में बहुत बड़ा कद रखते थे. एक बार के लिए मान भी लें कि रावण बसपा में शामिल हो गए तो क्या उस समय बुआ अपने इस युवा और महत्वाकांक्षी भतीजे की बढ़ती लोकप्रियता को हजम कर पाएंगी.

वहीं एससी-एसटी एक्ट पर पहले ही चारो ओर से घिरी हुई भाजपा दलित वोट बैंक को नहीं खोना चाहती. चंद्रशेखर की रिहाई के बाद जिग्नेश मेवाणी ने ट्वीट करके कहा “बेशक चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’ की रिहाई हमारे लिए खुशी का पल है. उनकी रिहाई हम सभी को ऊर्जा दे रही है और प्रेरित कर रही आनेवाले दिनों के संघर्ष के लिए. लेकिन सरकार का यह कहना कि ‘सहानुभूतिपूर्वक विचारोपरांत’ उन्हें रिहा किया गया है उनकी सामंती सोच को प्रकट करता है.”

इस ट्वीट से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज रावण का कद राष्ट्रीय राजनीति में कितना बढ़ा है और आने वाले समय में कितना बढ़ेगा. भाजपा सरकार अचानक चंद्रशेखर को छोड़ देती है इस खुशफहमी की वजह शायद यही है कि अब तक किसी भी राजनैतिक दल ने रावण का समर्थन नहीं किया है.  शायद बीजेपी आने वाले 2019 के लोकसभा चुनाव में रावण के जरिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलितों को साधने का प्रयास कर रही है.

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इससे पहले कि कोई राजनैतिक पार्टी चंद्रशेखर को समर्थन देकर दलितों में पैठ बनाए उससे पहले ही भाजपा चंद्रशेखर को आजाद करके खुद को दलितों का हितैषी दिखाना चाह रही है. शायद राम के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी इस बार रावण पर दांव लगाना चाहती है. कुछ ही महीनों के बाद पूरे देश में चुनाव होंगे. जाति धर्म के नाम पर टूट-फूट चलेगी. अब आने वाला वक्त ही बताएगा कि 2019 के रामायण में कौन रावण होगा और किसकी लंका जलेगी.

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