नई दिल्ली: 2014 में सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सफाई अभियान की अगुवाई करने में लगे हुए हैं. प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के स्वच्छ भारत के सपने को सच कर दिखाने की दिशा में काम करने के दावे कर रहे हैं.
लेकिन देश में इस काम को करने वाले लोगों की स्थिति पर यदि ध्यान दिया जाए तो वो बेहद शर्मनाक है और सफाई अभियान के सपने पर धब्बा है. नरेंद्र मोदी के सपने को सच करने में जो सफाई कर्मचारी जमीन पर काम कर रहे हैं उनकी जिंदगियों को ताक पर रखा जा रहा है.
पांच साल में 1896 सफाई कर्मचारियों ने गंवाई जान
मैगसेसे अवॉर्ड विनर और भारत में सफाई कर्मचारियों की अगुवाई करने वाले बिजवाडा विल्सन के मुताबिक पिछले पांच सालों में 1896 सफाई कर्मचारियों ने सीवरों की सफाई के दौरान अपना दम तोड़ दिया. अकेले देश की राजधानी में ये संख्या 90 से ज्यादा है,जो बेहद ही चिंताजनक है. ये हाल तब है जब दिल्ली हाईकोर्ट सरकार को कई बार सीवरों की सफाई के लिए उचित प्रबंधों के इंतजाम करने के लिए चेतावनी दे चुकी है.
दिल्ली में सीवरों की सफाई का काम ठेकेदारी पर करवाया जाता है. सीवरों की सफाई करने वाले कर्मचारी बताते हैं कि ठेकेदार से उन्हें 250 से 300 रुपये एक दिन की दिहाड़ी देता है. सीवरों को साफ करने वाले लोगों को अपनी सुरक्षा के लिए किसी तरह के कपड़े नही दिए जाते हैं. इन कर्मचारियों को बिना कोई दस्तानों और बूट्स के ही सीवरों में उतरना पड़ता है.
आध्यात्मिक अनुभव देता है मैला ढ़ोने का काम
वहीं सीवर साफ करने वाले इन लोगों की मौत केंद्र के लिए कोई मुद्दा ही नही है. मोदी सरकार इन लोगों की जिंदगियों के प्रति कितनी लापरवाह है इसका अंदाजा मोदी की इन लोगों के प्रति सोच को लेकर लगाया जा सकता है.
द टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी एक किताब कर्मयोग में मैला ढ़ोने को वाल्मिकी समुदाय के लिए एक आध्यात्मिक अनुभव बताया है.
भारत में आज भी गांवों में लोग मैला ढ़ोने जैसे काम करने को मजबूर हैं और देश के प्रधानमंत्री उसे अध्यात्मिक अनुभव कहते हैं. 2011 के सेंसस के मुताबिक देश के 1,82,505 गांव में रहने वाले परिवारों को मैला ढ़ोने का काम करना पड़ रहा है. मैला ढोने वाले के तौर पर रोज़गार पर प्रतिबंध और उनका पुनर्वास कानून, 2013 के तहत भारत के 13 राज्यों में 12,742 मैला ढ़ोने वाले लोगों की पहचान की गई थी जिसमें से 82 प्रतिशत लोग उत्तर प्रदेश से थे.
सत्याग्रह की रिपोर्ट के मुताबिक मैला ढ़ोने वालों के पुनर्वास के लिए 2014-15 में 448 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया था. 2015-16 में इस रक़म में बढ़ोतरी हुई और ये बढकर 470 करोड़ रुपये कर दी गई. लेकिन 2017-18 तक आते-आते यह बजट एक दम से केवल पांच करोड़ रुपए का रह गया. जबकि 2017 में सफाई अभियान के प्रचार में खर्च किए गए बजट को देखें तो वो उससे सात गुना ज्यादा है. सरकार ने 2017 के अक्टूबर तक सफाई अभियान के इश्तिहारों पर 37 करोड़ रूपये खर्च किए थे.
आज फिर देशभर में स्वच्छता ही सेवा अभियान चलाया जा रहा है लेकिन जरूरत है कि इस अभियान के आयामों को बढ़ाया जाए. सफाई कर्मचारियों की जिंदगियों को ताक पर रखने की बजाए उनके हितों की देखरेख में इस अभियान को सफल बनाया जाए.