लखनऊ: फिल्म थ्री इडियट में ये संवाद मशहूर हुआ था कि काबिल बनो कामयाबी झक मारकर आएगी. वर्तमान दौर में हमारे देश के राजनेता वक्त-बे-वक्त यह महसूस कराते हैं कि दलित बनो धन-दौलत और ‘अच्छे’ जरूर आएंगे. हालांकि इसको दलित महज एहसास भर कर पाते होंगे. क्योंकि हमारे देश के नेताओं के मुंह से दलितों के लिए प्यार भरे शब्द तभी सुनने को मिलते हैं जब उनका कुछ फायदा होने का वक्त आता है. इस फायदे की राजनीति के तहत कोई नेता दलितों के यहां पालथी मारकर भोजन करते दिखता है तो कोई उनकी सभाओं में ना केवल शिरकत करते दिखता है बल्कि दलितों के लिए अपने शब्दों से तारीफों की पुल बांधते भी दिखता है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी आगरा में हुए भाजपा अनुसूचित मोर्चा की प्रदेश कार्यसमिति में दलितों के इतिहास को ऋषि मुनियों से जोड़ते हुए जोर दिया कि सभी वेद और ग्रंथ दलित ऋषियों ने लिखे हैं.
योगी की ‘वेदवाणी’
भाजपा अनुसूचित मोर्चा कार्यसमिति की इस बैठक में मुख्यमंत्री अपने कार्यकर्ताओं में जोश भर रहे थे कि इस बैठक के बाद वो अपने अपने इलाके में 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए वोट बैंक बढाने का काम करें लेकिन नये कलेवर के साथ. वजह ये है कि वर्तमान राजनीतिक माहौल ‘आस्था की राजनीति’ में तब्दील कर दी गई है. निःसंदेह इसकी शुरुआत भाजपा ने की, अब उनके पीछे चलते हुए बड़े पार्टी के मुखियागण भी टीका लगवाते और पूजा करते नजर आते रहते हैं. फिर भी कुछ दलित परिवार ऐसे हैं जो किसी बड़े नेता और उनके फौज के एक वक्त के भोजन का बोझ नहीं उठा पाने के बावजूद ना चाहते हुए भी इस राजनीति का मोहरा बनाए जाते हैं. दलितों के प्रति प्रेम की इस पारंपरिक राजनीति के अलावा अब एक और कड़ी जोड़ दी गई है जिसमें अब वो खुद को ‘प्रकांड विद्वान’ होने का एहसास कर पाएंगे.
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दोनों हाथों में ‘लड्डू’ लेने की ‘चाहत’
अनुसूचित मोर्चा की प्रदेश कार्यकारिणी में योगी ने अपने कार्यकर्ताओं को हर उस पहलू से अवगत कराने की कोशिश की. योगी ने वेद व्यास, वाल्मीकि, संत रविदास और आधुनिक युग में दलितों के संत समझे जाने वाले बाबा साहब तक को ‘हथियार’ बनाने की नसीहत दी.
उनके भाषण में सबसे अहम् ये बात नजर आई कि वो एक तरफ ऋषि-मुनि और बाबा साहब का नाम लेते हुए दलितों के पैरोकार बने दिखाई दिये, वहीं दूसरी ओर जातिवादी से ऊपर उठकर आत्मा को शुद्ध करने की बात भी करते दिखे.
क्या है वास्तविकता ?
गरीब, दलित, मुसलमान और ऐसे कई ‘वोट बैंक’ जिनके लिए राजनेताओं के मुखमंडल से जब ‘मीठे स्वर’ सुनाई देने लगे तो समझ जाएं कि उस इलाके में चुनाव की बयार बह चुकी है. लेकिन सच्चाई यही है कि आजादी के 70 साल पूरे हो जाने के बाद भी कुछ फीसदी को छोड़कर दलितों की स्थिति में कुछ ज्यादा बदलाव नजर नहीं आता. पूरे देश की जनसंख्या के कुछ फीसदी को छोड़ दिया जाए तो इनको हमेशा से ही राजनेताओं की ओर से ठगा ही जाता रहा है. विश्वास न हो तो अपने आस पास के दलित इलाके में जाकर इस सच्चाई से रू-ब-रू हुआ जा सकता है.
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भाजपा के ‘दलित प्रेम’ की असली वजह
राष्ट्रीय जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक हमारे देश में 20 करोड़ से ज्यादा दलित निवास करते हैं. जो कुल आबादी का करीब 17 फीसदी है. वहीं उत्तर प्रदेश सबसे अधिक दलित राज्यों की सूची में शुमार है. उत्तर प्रदेश में दलितों की जनसंख्या प्रदेश की कुल आबादी का 20 फीसदी है. 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित कुल 84 लोकसभा सीटों में से 40 पर जीत हासिल की थी. जिसमें उत्तर प्रदेश की सभी 17 सीटों पर भाजपा विजयी हुई थी. वहीं अगर 2014 के बाद से राज्यवार चुनावों की बात करें तो बीजेपी ने जिन राज्यों में अपनी सरकार बनाई थी उनमें 70 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों में 41 पर विजय फताका लहराया था. इन आंकड़ों को देखते हुए यह कहना सही होगा कि दलित जिधर गए उधर भाजपा को जीत हासिल हुई. निःसंदेह यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के मुखिया योगी का दलित प्रेम जागा है और वो अपने कार्यकर्ताओं में इस अलख को जगाने में लग चुके हैं, लेकिन ‘कलेवर’ जरा हटकर है.