Birthday Special : फ़कीर का गाना सुनकर मोहम्मद रफी ने खुद को बनाया ‘शंहशाह-ए-तरन्नुम’

24 दिसम्बर 1924 को पंजाब के कोटला सुल्तानपुर सिंह में जन्मे मोहम्मद रफ़ी ने अपनी पहली परफॉर्मेंस 13 साल की उम्र में दी थी. कहा जाता है, कि रफ़ीसाहब ने अपने गांव में फकीर के गानों की नकल करते-करते गीत गाना सीखा था.

हिंदी सिनेमाजगत में चार दशक से भी ज्यादा लोगो के दिलों पर राज करने वाले रफ़ी ने करीब 26 हजार गीत हर भाषा में गाये हैं. इनमें हिन्दी के अतिरिक्त ग़ज़ल, भजन, देशभक्ति गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गाए गीत शामिल हैं.

वर्ष 1946 में फिल्म ‘अनमोल घड़ी’ में ‘तेरा खिलौना टूटा’ से हिन्दी सिनेमा की दुनिया में कदम रखा, इसके बाद उन्होंने पिछे मुड़कर नहीं देखा.

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ये है कुछ खास बातें

रफ़ी की सबसे ख़ास बात यह थी कि उनकी आवाज़ हर एक्टर पर फिट हो जाती. दिलीप कुमार से लेकर देवानंद और शम्मी कपूर से लेकर राजेंद्र कुमार वो जिस किसी भी स्टार के लिए गाते पर्दे पर मानो ऐसा लगता था जैसे रफ़ी नहीं वो स्टार गा रहा हो.

जिंदगी का राज

रफ़ी साहब की जिंदगी से जुड़ा एक ऐसा राज, जिसे शायद ही कोई जानता हो. मोहम्मद रफ़ी ने 1962 में चीन के खिलाफ अपने गीतों से जंग लड़ी थी. कहा जाता है, चीन ने जब हिंदुस्तान पर हमला किया तो रफी चौदह हजार फुट की ऊंचाई स्थित सांगला गए थे और देशभक्ति के गीत गाकर सैनिकों का हौसला बढ़ाया था.

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बेटी की सगाई से एक दिन पहले किया ये 

कहा तो यह भी जाता है कि, फिल्म ‘नील कमल’ का गाना ‘बाबुल की दुआएं लेती जा’ को गाते वक्‍त बार-बार उनकी आंखों में आंसू आ जाते थे और उसके पीछे कारण था कि इस गाने को गाने के ठीक एक दिन पहले उनकी बेटी की सगाई हुई थी इसलिए वो काफी भावुक थे, फिर भी उन्होंने ये गीत गाया और इस गीत के लिए उन्‍हें ‘नेशनल अवॉर्ड’ मिला.

कई भाषाओं में गाया गाना 

मोहम्मद रफ़ी ने 6 फ़िल्मफेयर और 1 नेशनल अवॉर्ड समेत कई पुरस्कार हासिल किये. पद्मश्री मोहम्मद रफी ने तमाम भारतीय भाषाओं के अलावा पारसी, डच, स्पेनिश और इंग्लिश में भी गीत गाए थे. मोहम्मद रफी की आवाज़ ने उनके बाद सोनू निगम, मोहम्मद अज़ीज़ जैसे कई गायकों को प्रेरित किया.

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उनका आखिरी गीत फ़िल्म ‘आस पास’ के लिए था, जो उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए अपने निधन से ठीक दो दिन पहले रिकॉर्ड किया था, गीत के बोल थे ‘शाम फिर क्यों उदास है दोस्त’.

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