नई दिल्ली। भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर उर्फ़ रावण शायद वही सोच रहे हैं जो पांच साल पहले अरविन्द केजरीवाल ने सोचा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी में ताल ठोंकने का उनका एलान इस बात को सोचने के लिए मजबूर करता है। दलित वोटरों की वाराणसी में तादाद और उनपर मौजूदा दावेदारी पर निगाह डालें तो रावण का वाराणसी के मैदान में उतरना रातों-रात लोकप्रियता हासिल करने की कोशिश ही नज़र आती है, दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि चंद्रशेखर मोदी के बहाने बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के कद को छूने के ख्वाहिशमंद हैं।
चंद्रशेखर का पूरा संघर्ष और उनकी पूरी सियासत पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रही है। प्रधानमंत्री के खिलाफ ताल ठोकने का ऐलान करके वो सुर्ख़ियों में हैं। शुरुआत में चंद्रशेखर ने भी अखिलेश यादव की तरह बुआ कहकर मायावती को लुभाने की कोशिश की थी। लेकिन, मायावती ने उन्हें कभी मुंह नहीं लगाया। बल्कि अपने कार्यकर्ताओं को भीम आर्मी जैसे संगठन से दूर रहने का निर्देश देकर चंद्रशेखर को हर बार दुत्कारा है। अब मोदी के खिलाफ उम्मीदवारी को लेकर मायावती एक बार फिर हमलावर हैं, उन्होंने कहा है कि भीम आर्मी भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर काम कर रही है। वाराणसी से चंद्रशेखर की दावेदारी दलित वोटों को दिग्भ्रमित करके गठबंधन को कमज़ोर करने की साज़िश है।
आखिर चंद्रशेखर की दावेदारी लोकप्रियता की चाहत ज़्यादा क्यों नज़र आती है। इसको समझने के लिए दो बातों पर गौर करिए। चुनाव अगर जीतने के लिए लड़ा जा रहा है, तो ज़ाहिर है उम्मीदवार अपने लिए अनुकूल समीकरणों को सबसे पहले देखेगा। इसमें दो राय नहीं कि चंद्रशेखर ने दलित युवाओं में काफी तेज़ी से अपनी पैठ बनाई है। लेकिन इस लिहाज से भी उनकी पकड़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। जाहिर है वो पश्चिमी उत्तर प्रदेश की किसी सीट से अगर किस्मत आजमाते हैं तो उनके किए ज्यादा बेहतर माना जाएगा ,वो इसलिए भी क्योंकि वाराणसी सीट है तो महत्वपूर्ण मगर दलित वोटर्स के लिहाज से अहम् नहीं है। यहां कुल सोलह लाख वोटर्स में दो लाख दलित बताए जाते हैं, उनका प्रभाव है मगर इतना नहीं कि एकतरफा वोटिंग करके किसी को जिता दें। और उससे भी ज्यादा बड़ी बात यह कि , चंद्रशेखर उर्फ़ रावण का पूर्वी उत्तर प्रदेश से अभी तक कोई ताल्लुक नहीं रहा है। वहां के लिए वो बिलकुल नए हैं।
पिछले दिनों कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी चंद्रशेखर का अस्पताल में हाल लेने गयीं थीं। इस घटना के बाद ही चंद्रशेखर को मीडिया कवरेज की नयीऊंचाई मिली और पीएम को हारने का संकल्प वो कैमरों के सामने जताने लगे। याद करिये 2014 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की जीत के बाद अरविन्द केजरीवाल भी नरेंद्र मोदी के खिलाफ ताल ठोंकने सीधा वाराणसी। इस कदम से उन्हें नेशनल और इंटरनेशनल मीडिया की अटेंशन तो मिली,लेकिन वोट हासिल करने में वो औंधे मुँह गिरे। चंद्रशेखर की चुनावी गणित के लिहाज दावेदारी भी यही होने का अंदेशा जता रही है। मोदी के चेहरे के खिलाफ ही पूरे विपक्ष की लामबंदी है। वाराणसी में सपा, बसपा और कांग्रेस नरेंद्र मोदी को घेरने में कोई कसार नहीं छोड़ने वाले, ऐसे में एकला चलो की राह पर बढ़ रहे चंद्रशेखर वहां क्या गुल खिला पाएंगे आसानी से समझा जा सकता है। वह भी तब जबकि फिलहाल तक दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा मायावती उनसे इस हद तक चिढ़ती हैं।