UP: आखिर क्यों ‘जाति’ के आगे फेल हो जाता है ‘विकास’, जानिए जातिगत समीकरण
कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है. लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति को साधना मुश्किल काम है. यूपी तो बहुत बदल गया है लेकिन जो चीज नहीं बदली उसमे प्रमुख है जाति.
वोट व्यक्ति डालता है लेकिन जीत-हार के खेल की चाभी जाति ही है. आगामी लोकसभा के चतुषकोणीयें जंग में जाति का खेल सभी दल खेलेंगे, लेकिन जातिगत समीकरण के असर को बसपा ने सबसे पहले खुलकर स्वीकार किया.
मायावती और अखिलेश इसी समीकरण के सहारे सोशल इंजीनियरिंग की बुनियाद पर सत्ता का स्वाद चखने की तैयारी में हैं और इसी समीकरण को समझते हुए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती ने गठबंधन कर लोकसभा चुनाव में उतरने का ऐलान किया है. भाजपा और कांग्रेस को चुनावीं बैतरनी पार करने के लिए जाति के इस मकड़ जाल से गुजरना होगा.
समझे जातिगत समीकरण
राज्य में मुसलमानों और दलित वोटरों का संयुक्त प्रतिशत 39 है. पिछले चुनावी नतीजे बताते हैं कि दलित वोटर पूरी मजबूती से बीएसपी और मायावती के साथ हैं और मुसलमान वोटर किसी भी कीमत पर भाजपा को वोट नहीं देंते. यदि बाकि बचे 61 फीसदी वोटरों का विश्लेषण करें तो 10 फीसदी यादव वोटरों का कोई छोटा हिस्सा भी बीजेपी को वोट देगा, इसमें संदेह है.
यादव वोटर सपा से छिटकना बहुत मुश्किल है. बचते हैं 51 फीसदी वोटर, जिनके सहारे भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस राज्य की 80 सीटों पर जीत हासिल करने के लिए जबरदस्त फाइट करती नजर आएंगे. जो लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के लिए चुनौती पेश कर सकते है. आइए समझते हैं इस जातीय समीकरण को.
जाति के ब्लू प्रिंट पर नजर डालें तो प्रदेश में कुल 49 जिले ऐसे हैं, जहां सबसे ज्यादा संख्या दलित वोटरों की है. कुछ जिलों को छोड़ दें तो बाकी जगहों पर दलित दूसरा सबसे बड़ा वोट बैंक है. वही 20 जिले ऐसे हैं, जहां मुस्लिम वोटर सबसे ज्यादा हैं और प्रदेश के किसी भी चुनाव में असर करती है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में दखल रखने वाली तीन और प्रमुख जातियां हैं- यादव, ठाकुर और ब्रह्मण. संख्या के लिहाज से यूपी का सबसे बड़ा समुदाय ओबीसी है. हिंदू और मुस्लिम को जोड़ दें तो हर जिले में इनकी संख्या सर्वाधिक है. लेकिन ओबीसी समूह के तौर पर वोट नहीं करते. पिछड़ी जातियों में सबसे बड़ी जाति यादव है.
प्रदेश के 44 जिलों में यादव जाति के वोटरों की संख्या 8 फीसदी से ज्यादा है और इनमें से 9 जिलों में यादवों की हिस्सेदारी 15 फीसदी या इससे ऊपर है. एटा, मैनपुरी और बदायूं जिलों में मुसलमानों के बराबर यादव सबसे बड़ा वोट बैंक हैं. यूपी में जबरदस्त मौजूदगी के बावदजूद पश्चिमी यूपी के 10 जिलों में यादवों की संख्या न के बराबर है.
पश्चिमी बेल्ट में जाट और गुर्जरों का अच्छा खासा वोट बैंग है. जाट मतदाताओं का पूरे पश्चिमी क्षेत्र में खास असर माना जाता है. बागपत में तो जाट और गुर्जर मतदाताओं की कुल संख्या लगभग 40 फीसदी है.
बुंदेलखंड और पूर्वांचल के जिलों में लोधी, कुर्मी, पाल और कुशवाहा जैसी जातियां यादवों के बराबर की हैसियत रखती हैं जो अक्सर यादवों के असर को न्यूट्रल करने का काम कर देती हैं. प्रदेश में इन जातियों के अलावा अतिपिछड़ी जातियों की लंबी जमात है जो छिटपुट रूप से अलग-अलग सीटों पर कुर्सी की चाभी अपने हाथ में रखती है.
देखा जाए तो ब्राह्मण संख्या के लिहाज से दलित, मुसलमान और यादवों से कम हैं, लेकिन दलितों की ही तरह उनकी उपस्थिति पूरे प्रदेश में है. 60 जिलों में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 8 फीसदी से ज्यादा है, वही 29 जिलों 12 फीसदी के आस-पास ब्राह्मण वोटर है. ब्राह्मण जाति का आस-पास के परिवेश में उसका सम्मान और स्वीकार्यता है. ऐसे में संख्या में कम होने के बावजूद ब्राह्मण बाकी समुदायों को अपने साथ जोड़ने में आम तौर पर कामयाब रहते हैं.
ब्राह्मणों की तरह ही ठाकुरों को टिकट देने में पार्टियां सजग दिखती हैं. ठाकुर भी पूरे प्रेदश में फैले हैं और उनकी औसत उस्थिति 5-6 फीसदी के बीच रहती है. पूर्वांचल के जिलों में ठाकुर और भूमिहार मतदाताओं की हिस्सेदारी 10 फीसदी के आसपास तक पहुंच जाती है.
गोरखपुर, कुशीनगर देवरिया, आजमगढ़, मऊ, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, वाराणसी, मथुरा, आगरा, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली, सुल्तानपुर, बांदा, चित्रकुट ऐसे जिलें है जहा यादवों के साथ तीसरे सबसे बड़े वोट बैंक के लिए कड़ा संघर्ष करते हैं. राजनीतिक दल समाज में ठाकुरों की स्वीकार्यता को भूनाने के लिए भी बड़ी संख्या में टिकट देती हैं और यही वजह है कि इस समुदाय के लोग सभी दलों में टिकट पाने में कामयब होते है.
इन तीन प्रमुख जातियों की तुलना में वैश्य या बनिया समुदाय क आबादी भले ही प्रदेश में कम है, लेकिन अपनी आर्थिक ताकत के कारण इनक दरकार हर पार्टी को रहती है. इसी आर्थिक ताकत के सहारे वैश्य समाज के लोग राजनीतिक दलों से टिकट पाने में कामयाब रहते है.
कुर्मी जाति भी उत्तर प्रदेश चुनाव में अहम भूमिका निभाती है. कुर्मी जाति की दमदार मौजूदगी संत कबीर नगर, मिर्जापुर, सोनभद्र, बरेली, उन्नाव, जालौन, फतेहपुर, प्रतापगढ़, कौशांबी, प्रयागराज, सीतापुर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, सिद्धार्थनगर और बस्ती जिले में देखी जाती है. इन 16 जिलों में कुर्मी वोट 6-10 फीसदी है.
कुर्मी जाति के अलावा लोध या लोधी जाति भी प्रदेश की सियासत में बड़ी ताकत रखते हैं. रामपुर, ज्योतिबाफूले नगर, बुलंदशहर, अलीगढ़, महामाया नगर, फिरोजाबाद, मैनपुरी, पीलीभीत, लखीमपुर खीरी, उन्नाव, शाहजहांपुर, हरदोई, फार्रुखाबद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर, हमीरपुर और महोबा जिलों में लोध मतदाताओ की संख्या 5-10 फीसदी तक हैं.
बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण के बाद सुर्खियों में आई कुशवाहा जाति फिरोजाबाद, एटा, मैनपुरी, हरदोई, फर्रुखाबाद, इटावा, औरैया, कन्नौज, कानपुर, जालौन, झांसी, ललितपुर और हमीरपुर जिलों में 7 से 10 फीसदी वोट बैंक है. जिस पर सभी राजनीतिक दलों की निगाह है.
जीत हासिल हो इसकी कोई गारंटी नहीं
राजनीतिक दलों के लिए संजीवनी हैं जाति यही वजह है कि विकास की बातें पीछे छोड़ सभी पार्टियां जाति के सहारे चुनाव मैदान में उतरती है जो उनके लिए मुफीद साबित होता है. जुबान पर जन और जेहन में जात. उत्तर प्रदेश का सियासी बिसात का आलम कुछ ऐसा ही है. हर दल अपने हिसाब से मतदाता सूचियों और अपने कार्यकर्ताओं के बल पर सीटों का जातिगत ब्लूप्रिंट तैयार कर लिया है.
आधिकारिक आंकड़ो की गैर-मौजूदगी में इस ब्लू प्रिंट की वैधानिक कीमत भले ही रद्दी की तौल में हो, लेकिन टिकट बांटने वाले दिग्गज इस मोटी पोथी को सीने से लगाए घूमते हैं. और इसी पोथी से निकले जाति के मंत्र के हिसाब से उम्मीदवार की कीस्मत का फैसला कर लिया जाता है.
मजे की बात है कि फिर भी सूबे के पानी की तासीर कुछ ऐसी कि जाति के सौ तार वाले संतुर को साधने के बावजूद जीत की धुन सुनाई ही पड़ेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है.