प्रकाश भटनागर: विलियम शेक्सपियर ने लिखा था, भला नाम में क्या रखा है? इस लिहाज से किसी को आपत्ति नहीं होना चाहिए कि अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद देश में कई योजनाओं तथा स्थानों को उनका नाम देने की घोषणाओं की होड़ मच गई है। जाहिर है कि ऐसा भाजपा उस अघोषित कॉपीराइट के तहत कर रही है, जिसके तहत कांग्रेस ने ताकत हाथ में होते हुए नामकरण के लिए गांधी, नेहरू, इंदिरा और राजीव का जमकर इस्तेमाल किया।
यह भावना प्रधान देश का मामला है। यहां तो कई घटिया सितारों का किसी फिल्म में अभिनय महज इसलिए सराह दिया जाता है कि उसका किरदार बहुत अच्छा था। इसलिए जज्बात को भुनाने का मौका किसी ने भी हाथ से जाने नहीं दिया। हर साधन को निचोड़ने की हद तक इसके लिए इस्तेमाल किया गया। इंदिरा गांधी की हत्या का समय याद कीजिए। बुद्धू बक्सा यानी दूरदर्शन पर उस दौर की लम्बी अवधि में यदि कुछ था तो केवल इंदिराजी। उनके अंतिम संस्कार के दृश्य। राजीव की बगल में खड़े सहमें से दो बच्चे।
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उनसे जुड़ी सामग्री कम पड़ी तो भाई लोग श्रद्धांजलियों के ही रिपीट टेलीकास्ट दिखाने लग गए थे। इस खबर को कई-कई बार प्रसारित किया गया कि उनकी पार्थिव देह की राख किस तरह पवित्र पर्वतों पर बिखेरी गई है। सिलसिला तब तक चला जब तक राजीव गांधी रिकार्ड तोड़ बहुमत से नहीं जीत गए। लोकसभा के इस विशाल बहुमत पर सार्वजनिक तौर पर तो नहीं, पर आपसी बातचीत में अटलजी ने आडवानी जी से यही कहा था, यह लोकसभा नहीं शोकसभा है।
इससे पहले भी यही हो रहा था। मोहनदास करमचंद गांधी तो कांग्रेस द्वारा कुछ यूं इस्तेमाल किए गए, जैसे सब्जी में नमक। यह कहने की सक्षमता नहीं थी कि इस देश में जो है, वह कांग्रेस है, इसलिए नामकरण और मूर्तियों के जरिए यह तो कर ही दिया गया कि जो कुछ हैं, वह कांग्रेस के गांधी और नेहरू ही हैं। जवाहर लाल नेहरू के अवसान के बाद नेहरू मार्ग से लेकर मूर्तियों के जाल बिछा दिए गए। इंदिरा तथा राजीव के लिए भी ऐसा ही किया गया। दलितों को लुभाने वालों ने डॉ. भीमराव अम्बेडकर की मूर्तियों से इस काम को पूरा किया।
लिहाजा आज यदि भाजपा अटलजी की स्मृतियों को अपने हक में भुनाने की कोशिश कर रही है तो इस पर हायतौबा मचाना उचित नहीं है। आखिर भाजपा देश की ऐसी पहली गैर कांग्रेसी पार्टी है जिसकी केन्द्र सहित देश के बीस राज्यों में सत्ता की भागीदारी है। और इस पार्टी के संगठन की जो ताकत है, दूसरी किसी पार्टी में नहीं है। इसलिए अटलजी को यह कांग्रेस से ज्यादा बेहतर तरीके से भुना सकेगी। कांग्रेस ने तो सरकारी साधनों के दौहन से ही इन भावनाओं को भुनाया था लेकिन भाजपा तो सरकार और संगठन दोनों के स्तर पर अभी अटलजी को कम से कम आठ-दस महीने तो लोगों के दिल और दिमाग में जिलाए रख सकती है।
केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार है तो संभव है कि जल्दी ही भोपाल का हबीबगंज स्टेशन अटल बिहारी वाजपेयी के नाम से पहचाना जाने लगे। शिवराज सिंह चौहान तो उनकी जीवनी को पाठ्यक्रम में शामिल करने की घोषणा कर चुके हैं। इसमें गलत क्या है? अटलजी ने वह जीवन जिया, जो वाकई पे्ररणा स्रोत है। जब तमाम ऐतिहासिक तथ्यों का गला घोंटते हुए आप स्कूली किताबों में मुगल शासक अकबर को महान बता सकते हैं तो फिर वाजपेयी से गुरेज क्यों? इस पर आपत्ति का क्या कोई मतलब है जिस पर गौर किया जाना चाहिए। अटल जी अब कई शहरों के मुख्य मार्गों पर होंगे, चौराहों पर होंगे, शिक्षा की किताबों में होंगे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर देश भर में विमर्श का दौर चलता रहेगा। आखिर श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय के बाद अब अटल जी इस पार्टी की तीसरी ऐसी धरोहर है, जिसे चिर स्थायी बनाने का काम भाजपा जरूर करेगी।
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यह देश ताकत से किए गए नामकरण के ऐसे खेल देखने का अभ्यस्त हो चुका है। यहां की सत्ता बंदूक की नली से निकले या न निकले, लेकिन वह ताकत से जरूर ही निकलती है। वामपंथी शक्तिशाली हुए तो उन्होंने त्रिपुरा में व्लादिमिर लेनिन की मूर्तियां लगा दीं। फिर वहां भाजपा को हुकूमत मिली तो मिट्टी के लेनिन मिट्टी में ही मिला दिए गए। पश्चिम बंगाल में सत्ता के मद में चूर ममता बनर्जी ने सदियों पुराने हिंदू मंदिर के बोर्ड पर एक अल्पसंख्यक को लाकर बिठा दिया। जब ऐसा सब कुछ चल सकता है तो अटलजी जैसे वाकई चलने लायक नाम को लेकर चिल्लपों क्या शोभा देती है?
एमजी रोड के नाम में सिमटे किसी महात्मा गांधी मार्ग से पूछिए। उत्तरप्रदेश में अरबों रुपया खर्च कर लगाई गईं मायावती और कांशीराम सहित हाथियों की प्रतिमा से बात कीजिए। नेहरू युवा केंद्र की आत्मा को टटोलिए। राजीव गांधी के नाम पर दिए गए भारत रत्न के मन का हाल जानने की कोशिश कीजिए। भोपाल में भोपाल विश्वविद्यालय से बरकतउल्ला विश्वविद्यालय बना दिए गए शिक्षण संस्थान को कुरेदिए। सभी कहेंगे कि जब हम ऐसे अमर हुए तो अटलजी से कैसा परहेज किया जाना चाहिए।
इसलिए विरोध करने वालों, जरा सब्र रखो। मुगलसराय को दीनदयाल उपाध्याय में तब्दील कर तुम्हें नई राह दिखा दी गई है। तुम्हारा समय आए तो तुम भी ऐसा ही कर गुजरना। कौन रोकेगा तुम्हें? कागजी शेरों से भरा सोशल मीडिया! कापोर्रेट के जंगल में अपनी आत्मा का खुद ही आखेट कर चुका मीडिया! महज हुल्लड़ ब्रिगेड में तब्दील हो चुका विपक्षी दलों का स्वरूप! या फिर देश की बजाय जात-पात या क्षेत्र के आधार पर वोट देने वाला मतदाता ! कोई नहीं रोक सकता है तुम्हें। इसलिए फिलहाल तेल देखो, तेल की धार देखो। सत्ता देखो, सत्ता में आने का ख्वाब देखो। इसमें नैतिकता या अनैतिकता तलाशने जैसी मूर्खता में मत पड़ जाना। क्योंकि भला नाम में क्या रखा है, का उपदेश देने वाले विलियम शेक्सपियर ने इस पंक्ति के नीचे भी खुद का नाम लिखने में कोई शर्म नहीं की थी।
( लेखक भोपाल से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र ‘एलएन स्टार’ के संपादक हैं और यहां प्रकाशित विचार उनके निजी हैं )