आखिर क्यों अटल का नेतृत्व स्वीकार किया आडवाणी ने, पूरी कहानी उन्हीं की जुबानी

 नई दिल्ली: यदि मुझे ऐसे किसी एक व्यक्ति का नाम लेना हो, जो प्रारंभ से अब तक मेरे पूरे राजनीतिक जीवन का अंतरंग हिस्सा रहे, जो लगभग पचास वर्ष तक इस पार्टी में मेरे सहयोगी रहे तथा जिनका नेतृत्व मैंने सदैव निःसंकोच भाव से स्वीकार किया तो वह नामअटल बिहारी वाजपेयी का होगा…

मैं पहली बार सन् 1952 के उत्तरार्ध में अटलजी से मिला था. भारतीय जनसंघ के युवा सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में वे राजस्थान में कोटा से गुजर रहे थे. वहां पर मैं संघ का प्रचारक था. रेल में वह डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ थे, जो नवगठित पार्टी को लोकप्रिय बनाने के लिए रेलयात्रा पर निकले थे. उन दिनों अटलजी डॉ. मुखर्जी के राजनीतिक सचिव थे. अतीत की ओर देखता हूं तो मेरे मन में उनका सबसे ज्यादा जीवंत चित्र युवा राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में ही उभरता है.

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वे उस समय मेरे जैसे दुबले-पतले ही थे. हालांकि मैं ज्यादा दुबला दिखाई देता था, क्योंकि मैं उनसे ज्यादा लंबा था. मैं आसानी से यह बता सकता हूं कि उनमें आदर्शवाद की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी तथा उनके चारों ओर एक कवि का प्रभामंडल था, जिसे नियति ने राजनीति की ओर मोड़ दिया था. उनके भीतर कुछ सुलग रहा था और इस अग्नि की दीप्ति उनके मुखमंडल पर छाई हुई थी. उस समय उनकी आयु सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष रही होगी. इस पहली यात्रा के अंत में मैंने स्वयं से कहा कि यह असाधारण युवक है तथा मुझे इसके बारे में जानना चाहिए.

सन् 1948 में अटलजी राष्ट्रवादी साप्ताहिक पत्र ‘पाञ्चजन्य’ के संस्थापक संपादक बने. उनके नियमित पाठक के रूप में मैं उनके नाम से पहले ही परिचित था. वस्तुतः मैं उनके सशक्त संपादकीय लेखों तथा समय-समय पर इस पत्र में प्रकाशित कविताओं से बहुत ज्यादा प्रभावित रहा. इस पत्र के माध्यम से मुझे पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचारों की जानकारी मिली, जिन्होंने राष्ट्रवादी साहित्य के गरिमामय प्रकाशक ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ के अंतर्गत यह पत्र प्रकाशित किया था.

मुझे बाद में पता चला कि अटलजी के साथ वे इस साप्ताहिक पत्र के प्रकाशन में बहुमुखी भूमिकाएं निभाते थे. वे प्रूफ रीडर, कंपोजिटर, बाइंडर तथा मैनेजर की जिम्मेदारी निभाते हुए पत्रिका में नियमित रूप से अनेक उपनामों से लिखा भी करते थे. मेरे जैसे किसी व्यक्ति के लिए जिसने अभी हाल ही में हिंदी सीखी थी, ‘पाञ्चजन्य’ भाषा के नैसर्गिक सौंदर्य तथा शुद्धता का अनुभव कराने के लिए उपयोगी माध्यम था. इसके अलावा, इस पत्र में देशभक्ति की प्रेरणा देने की अद्भुत क्षमता थी.

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कुछ समय बाद अटलजी अकेले राजस्थान के राजनीतिक दौरे पर आए. पूरी यात्रा के समय मैं उनके साथ रहा. इस यात्रा के दौरान मैं उन्हें बेहतर ढंग से जान पाया. दूसरी बार में, उनके बारे में पहली बार बनी धारणा और अधिक मजबूत हो गई. उनका अनूठा व्यक्तित्व, असाधारण भाषण शैली, उनका हिंदी भाषा पर अधिकार तथा वाक्-चातुर्य और विनोदपूर्ण तरीके से गंभीर राजनीतिक मुद्दों को प्रभावशाली ढंग से मुखरित करने की क्षमता, इन सभी गुणों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. दूसरे दौरे की समाप्ति पर मैंने अनुभव किया कि वह नियति पुरुष एवं ऐसे नेता हैं, जिसे एक दिन भारत का नेतृत्व करना चाहिए.

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के बाद उस समय जनसंघ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति पं. दीनदयाल उपाध्याय थे. अटलजी के प्रति उनके भी उच्च विचार थे तथा मई 1953 में डॉ. मुखर्जी की त्रासद मृत्यु के बाद उन्होंने अटलजी को पार्टी तथा संसद् की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी. थोड़े ही समय में अटलजी ने स्वयं को पार्टी के सर्वाधिक करिश्माई नेता के रूप में सिद्ध कर दिया.

हालांकि कांग्रेस जैसे विशालकाय वृक्ष के सामने जनसंघ एक छोटा सा पौधा था, लेकिन ऐसे स्थानों पर भी लोगों की भीड़ अटलजी का भाषण सुनने के लिए टूट पड़ती थी जहां पर पार्टी की जड़ें जमी भी नहीं थीं. वक्तृत्व शैली के अलावा जन-साधारण उनसे इस कारण भी प्रभावित था कि वे राष्ट्रीय मुद्दों पर कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी से भिन्न विकल्प प्रस्तुत करते थे. इस प्रकार युवावस्था में ही उनमें राष्ट्रव्यापी अपील के साथ होनहार जननायक के रूप में उभरने के सभी संकेत नजर आने लगे थे.

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सन् 1957 में संसद् में अटलजी के निर्वाचित होने के बाद दीनदयालजी ने एक अन्य कदम उठाया, जिसका संबंध मुझसे था. दीनदयालजी ने मुझसे कहा कि राजस्थान से दिल्ली जाएँ और संसदीय कार्यों में अटलजी की मदद करें. तब से अटलजी और मैंने जनसंघ के विकास तथा बाद में भाजपा के विकास के लिए प्रत्येक स्तर पर मिलकर कार्य किया है. लोकसभा में प्रवेश के थोड़ी देर बाद ही अटलजी संसद् में पार्टी की आवाज बन गए. संख्या में कम होते हुए भी उन्होंने सभी पर अपना प्रभाव बनाया.

एक दशक बाद, फरवरी 1968 में दीनदयालजी की दुःखद मृत्यु के बाद उन्हें पार्टी की अध्यक्षता का उत्तरदायित्व भी संभालना पड़ा. पार्टी के इतिहास में यह अत्यंत विकट दौर था; लेकिन अटलजी शीघ्र ही ऐसे सक्षम नेता के रूप में उभरे, जिन्होंने जनसंघ को इस गहरे दलदल से उबार लिया. उस समय यह नारा हमारी पार्टी के कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ – ‘अंधेरे में एक चिनगारी, अटल बिहारी, अटल बिहारी’.

पांच वर्ष बाद, सन् 1973 में उन्होंने पार्टी की संगठन संबंधी जिम्मेदारी मुझे सौंपी. पार्टी को मजबूत बनाने के काम में अटलजी, नानाजी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे, सुंदरसिंह भंडारी तथा अन्यों के साथ प्रगाढ़ मैत्री मेरी राजनीतिक यात्रा का अभिन्न अंग रही. जब इंदिरा गांधी ने जून 1975 में आपातकाल की घोषणा की तब जनसंघ पहले ही मजबूत तथा सर्वाधिक संगठित विपक्षी दल के रूप में स्थापित हो चुका था. इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी, जब इस पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का विश्वास जीत लिया तथा यह उनके द्वारा जुटाए गए लोकतंत्र समर्थक सेनानियों का सर्वाधिक उत्साह एवं उमंग भरा जत्था बन गई.

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पुनः अटलजी एवं मैंने मिलकर संघर्ष किया तथा जेल गए और आपातस्थिति हटने के बाद जनता पार्टी के गठन के लिए मिलकर कार्य किया. वस्तुतः इसके बाद जयप्रकाश नारायण का स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद (8 अक्तूबर, 1979 को वे चल बसे) जनता पार्टी की एकता तथा इसकी सरकार की स्थिरता के लिए अटलजी और मैंने जितना परिश्रम एवं दृढ़तापूर्वक कार्य किया, उतना और किसी ने नहीं किया.

लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि जनता पार्टी की एकता बनाए रखने के लिए हमारे प्रयासों की परिणति यह हुई कि ‘दोहरी सदस्यता के मुद्दे’ के बहाने हमें इस पार्टी से निकाल दिया गया. सन् 1980 में अटलजी ने और मैंने पुनः अन्य साथियों के साथ भाजपा की स्थापना की. यह सही है कि लोकसभा के वर्ष 1984 के चुनावों में हमारी पार्टी को निराशा हाथ लगी. हमने सिर्फ दो सीटें जीतीं.

यहां तक कि ग्वालियर से अटलजी चुनाव हार गए. लेकिन इस हार का मुख्य कारण इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में उत्पन्न ‘सहानुभूति लहर’ रही. यह वास्तव में लोक सभा का चुनाव नहीं बल्कि ‘शोक सभा’ चुनाव था, जहां सारी सहानुभूति राजीव गांधी के साथ रहनी स्वाभाविक थी.

इसके बाद भाजपा की आकस्मिक प्रगति का माध्यम ‘अयोध्या आंदोलन’ रहा. इस समय अटलजी ने अपेक्षाकृत कम सक्रिय रहने का निर्णय लिया. लेकिन मुझे इस बारे में कोई संदेह नहीं था कि वर्ष 1996 में केंद्र में स्थिर सरकार बनाने की असफलता से लेकर (1996 में अटलजी केवल तेरह दिन तक प्रधानमंत्री रहे) 1998 में पुनः मिली सफलता तक की पार्टी की यात्रा का श्रेय मुख्यतः अटलजी की व्यक्तिगत लोकप्रियता को जाता है.

इससे पार्टी का जनाधार कई गुना बढ़ गया. पुनः हम दोनों ने राजग के गठन के लिए मिलकर कार्य किया. ऐसा करते समय हमने ‘राजनीतिक अस्पृश्यता’ की बेडि़यां तोड़ दीं, जिनसे कांग्रेस तथा कम्युनिस्ट पार्टी ने हमें बांधने की कोशिश की थी.

वर्ष 1990 में अयोध्या आंदोलन के लिए समर्थन जुटाने हेतु मेरे द्वारा राम रथयात्रा का श्रीगणेश किए जाने के बाद मीडिया ने अटलजी और मुझे अलग-अलग ढंग से पेश करना शुरू किया. अटलजी को उदार बताया गया, वहीं मुझे ‘कट्टर हिंदू’. प्रारंभ में इससे मुझे बहुत पीड़ा पहुंची, क्योंकि मैं जानता था कि यथार्थ मेरी इस छवि के एकदम विपरीत है.

मुझे मीडिया में मित्रों तक अपनी भावनाएं पहुंचाने तक कठिनाई हो रही थी तथा तब मेरी पार्टी के कुछ सहयोगियों ने, जो अपनी छवि के प्रति मेरी संवेदनशीलता से परिचित थे, मुझे सलाह दी कि इस समस्या के बारे में चिंता न करें. उन्होंने कहा, ‘आडवाणीजी, वास्तव में इससे भाजपा को दोनों प्रकार के नेताओं की छवि से लाभ होगा, जिसमें एक नेता उदार है और दूसरा कट्टर हिंदू.’

‘हवाला कांड’ में लगाए गए झूठे आरोप के चलते मैंने घोषणा की कि जब तक न्यायपालिका मेरे ऊपर लगाए मिथ्या आरोपों से मुझे मुक्त नहीं कर देती तब तक मैं दोबारा लोकसभा में नहीं आऊंगा. इसलिए मैंने वर्ष 1996 के संसदीय चुनावों में प्रत्याशी बनने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया. अटलजी ने अपने पारंपरिक निर्वाचन क्षेत्र लखनऊ के साथ-साथ गुजरात में गांधीनगर से भी चुनाव लड़ा.

मैं अपने प्रति सार्वजनिक रूप से दर्शाए गए उनके विश्वास और सौहार्दता से भावविभोर हो गया. आशा के अनुरूप अटलजी भारी मतों से दोनों निर्वाचन क्षेत्रों से जीत गए. बाद में उन्होंने लखनऊ से अपनी सदस्यता बनाए रखते हुए गांधीनगर की सीट से त्यागपत्र दे दिया था. लेकिन उनके व्यवहार से पार्टी में ऊर्जा-शक्ति का संचार हुआ तथा व्यापक स्तर पर जनता तक सही-सही यह संदेश पहुंचा कि भाजपा के शीर्ष स्तर पर मजबूत एकता है.

यही संदेश वर्ष 1995 में मुंबई में पार्टी के महाधिवेशन से भी निकला, जब पार्टी अध्यक्ष के नाते मैंने आनेवाले वर्ष में संसदीय चुनावों में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में अटलजी के नाम की घोषणा की थी.मैंने यह घोषणा क्यों की? उस समय बड़ी निराधार अटकलें लगाई जा रही थीं. कुछ अटकलें आज भी लगाई जाती हैं, जो कष्ट पहुंचाती हैं.

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पार्टी तथा संघ के कुछ लोगों ने तब मेरी इस घोषणा के लिए मुझे झिड़का. उन्होंने कहा, ‘हमारे अनुमान से यदि पार्टी जनादेश प्राप्त करती है तो सरकार चलाने के लिए आप ही बेहतर होंगे.’ मैंने पूर्ण ईमानदारी और दृढ़विश्वास से जवाब दिया कि मैं उनके विचार से सहमत नहीं हूं. ‘जनता के परिप्रेक्ष्य में मैं जननायक की तुलना में विचारक अधिक हूं. यह सही है कि भारतीय राजनीति में अयोध्या आंदोलन में मेरी छवि बदली थी. लेकिन अटलजी हमारे नेता हैं, नायक हैं. जनता में उनका ऊंचा स्थान है तथा नेता के रूप में जनसाधारण उन्हें अधिक स्वीकार करता है.

उनके व्यक्तित्व में इतना प्रभाव और आकर्षण है कि उन्होंने भाजपा के पारंपरिक वैचारिक आधार वर्ग की सीमाओं को पार किया है. उन्हें न केवल भाजपा की सहयोगी पार्टियां ही स्वीकार करती, बल्कि इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि भारत की जनता उन्हें स्वीकार करती है.’ इनमें से कुछ का आग्रह था कि मैंने यह घोषणा करके महान् त्याग किया है. लेकिन मैं अपनी बात पर स्थिर था, ‘मैंने कोई त्याग नहीं किया है. यह पार्टी एवं राष्ट्र के सर्वोत्तम हित के एक सुविचारित आकलन का परिणाम है.’

अपने अन्य सहयोगियों के साथ हम दोनों ने वर्ष 1998 में भाजपा को सत्ता में लाने के लिए मिलकर कार्य किया. मैंने सरकार में उनके सहायक के रूप में कार्य किया. जब 29 जून, 2002 को मुझे उपप्रधानमंत्री नियुक्त किया गया था, तब इस संबंध को औपचारिक रूप मिला. मैंने उस दिन मीडिया से कहा था, ‘यह मेरे लिए सम्मान की बात है तथा मैं प्रधानमंत्री और राजग के अपने सभी सहयोगियों को धन्यवाद देना चाहता हूं.’ मैंने यह भी कहा, ‘लेकिन इससे मेरे कार्य में कोई अंतर नहीं आएगा.

प्रधानमंत्रीजी पहले ही मेरे साथ परामर्श करते थे और मैं पहले भी ऐसे ही कार्य करता था. हां, जनता की दृष्टि में तथा मेरे मंत्रिमंडल के साथियों की दृष्टि में मेरी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं.’ मैंने ऐसी अटकलों का भी खंडन किया, जो मीडिया तथा राजनीतिक क्षेत्रों में कुछ विरोधी तत्त्वों ने फैलाई थीं, जिनके अनुसार, उपप्रधानमंत्री के रूप में मेरी औपचारिक तरक्की से समानांतर सत्ता के केंद्र का सृजन हो जाएगा.


(यह लेख पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी की किताब ‘माय कंट्री माय लाइफ’ का एक अंश है)


 

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