सर्दियां शुरु होने के साथ ही दिल्ली वालों की मुश्किलें भी बढ़ने वाली हैं. क्योंकि बीते सालों में तमाम कवायद के बाद भी दिल्ली की आबोहवा मेंज़हर की मात्रा तनिक भी कम नहीं हुई. बल्कि राजनीतिक प्रदूषण सांसों केसाथ फेफड़ों को खराब कर रहा है. सांस लेने में तकलीफ, आंखों में जलन और घुटन से ज्यादा राजनीतिक कवायाद और बयान बाजी दम घोंटने को आमादा है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट, एनजीटी और नासा की तस्वीरों के बाद भी पराली जलाने में इंच भर रोक नहीं लग पाई, लेकिन राजनीतिक पार्टियों ने अपने हथकंडे दिखाते हुए सियासी रोटियां सेंकनी शुरु कर दी हैं.
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पराली की सियासत
पिछले साल सरकार ने खुद कहा था कि दिल्ली गैस चैंबर में तब्दील हो गई है, लेकिन इस साल सर्दियां शुरु होने से बाद भी कोई ठोई कदम नहीं उठाए गए. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पूरा ठीकरा हरियाणा-पंजाब की सरकार के सिर पर फोड़ दिया. दावा है कि मोदी सरकार ने हरियाणा और पंजाब के किसानों को मुआवजा देने का अपना वादा पूरा नहीं किया, जिसके कारण किसानों को अपनी पराली जलानी पड़ रही है. वहीं पंजाब-हरियाणा की सरकार ने
हाथे खड़े कर दिए हैं. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कह दिया है कि इस समस्या को रोकने के लिए हमारे पास पैसे नहीं हैं. वहीं कैप्टन ने पीएम को लैटर लिखकर पराली की समस्या से निपटने के लिए किसानों को 100 रुपए प्रति क्विंटल मुआवजा देने की मांग की. यानी पैसे का लेनदेन में लोगों की सांसे लटका दी गई हैं.
जुर्माने के प्रावधान से नहीं बना काम
एनजीटी के आदेशानुसार दो एकड़ में फसलों की पराली जलाने पर पच्चीस हजार रूपए, दो से पांच एकड़ भूमि तक पांच हजार रूपए, पांच एकड़ से अधिक जमीन पर पंद्रह हज़ार रूपए का जुर्माना किया जायेगा. इसके लिए सरकार ने जिला राजस्व अधिकारी की तय की है. एनजीटी के अनुसार यह फाइन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने के लिए लिया जा रहा है.
किसानों भी पीछे नहीं
एक तरफ जहां दिल्ली का पराली के धुंए से दम घुट रहा है, वहीं दूसरी तरफ किसानों ने मुआवजे की मांग को लेकर किसानों ने पराली जलाने में तेजी दिखानी शुरु कर दी है. एनजीटी और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दरकिनार करते हुए मोर्चा खोल दिया और सरकार को खुलकर चुनौती दी. पंजाब के संगरुर के किसान पराली की ट्रैक्टर लेकर सीधे डीसी ऑफिस पहुंच गए और वहां सड़कों पर पराली छोड़ दी. अन्य जगहों ने किसानों ने सरकार को चुनौती देते हुए जानबूझकर पराली जलाई. किसानों का मानना है कि वो जुर्माना भरने के लिए तैयार हैं लेकिन पराली जलाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है.
पराली उखाड़ने का खर्च
हरियाणा-पंजाब के लगभग 74 लाख 13 हज़ार 161 एकड़ में पराली जलती है. 5 हजार प्रति एकड़ मतलब 37 अरब 6 करोड़ 58 लाख 5 हजार का खर्च यानि मेघालय और मणिपुर के कुल बजट से भी ज्यादा. इस खर्च पर किसानों का साफ कहना है कि उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वो इस समस्या के लिए खर्च उठा पाएं इसीलिए पराली जलाने के अलावा उनके पास कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता.
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सांसों में ऑक्सीजन नहीं जहर घुल रहा है
दिल्ली-एनसीआर इलाकों में लोगों का सांस लेना मुश्किल हो चुका है. आलम ये है कि डॉक्टर लोगों को सुबह मॉर्निंग वॉक करने के लिए भी मना कर देते हैं. स्कूल, कॉलेजों और दफ्तरों को इन दिनों में बंद कर दिया जाता है. अस्पतालों में मरीजों की भीड़ जमा हो जाती है. अगर एयर क्वालिटी इंडेक्स पर नज़र डालें तो 100 तक मध्यम मानी जाती है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में हवा की गुणवत्ता का सूचकांक (एयर क्वालिटी इंडेक्स) एक अक्टूबर को 148 पर था पंद्रह अक्टूबर को 250 के पार जा पहुंचा.
एयर क्वालिटी इंडेक्स
0-50- अच्छा
51-100- मध्यम
101-150- सेंसिटिव लोगों के लिए नुक्सानदायक
151- 200- नुक्सानदेह
201- 300- बहुत नुक्सानदेह
301- 500 – घातक
पिछली सर्दियों में तो ये 500 से ऊपर चला गया था और इस साल भी हालात काफी खतरनाक है.
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दिल्ली की खराब हवा में कौन कितना ज़िम्मेदार?
हालांकि दिल्ली का खराब हवा के लिए कोई एक फैक्टर ही ज़िम्मेदार नहीं है. इस ज़हरीली हवा के लिए गाड़ियों का धुआं 41 फीसदी, उद्योगों का धुआं 20 फीसदी और धूल 19 फीसदी ज़िम्मेदार है. बाकी बची हुई पूरी कमी पराली पूरी कर देती है. जब पराली से निकलता हुआ जहरीला हवा ऊपर दिए गए फैक्टर्स के धुएं से जाकर मिलता है तो पर्यावरण में एक चादर का निर्माण हो जाता है जिससे आम जनता का सांस लेना दुबर हो जाता है. आंकड़ों की बात करें तो साल 2015 में प्रदूषण के कारण पूरी दुनिया में 90 लाख लोगों की मौत हुई थी. जिनमें 25 लाख भारतीय शामिल थे. वहीं पूरी दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में 14 शहर भारत के ही शामिल हैं.
पराली जलाने के नुकसान
पराली जलाना ना तो इंसान के लिए सुरक्षित है और न ही उस ज़मीन के लिए जहां फसलों की बुआई की जा रही है. पराली जलाने से खाद का नेचुरल सोर्स खत्म हो जाता है. सभी जानते हैं कि केचुंए मिट्टी खाते हैं और खाद बनाते हैं. मगर जब पराली जलती है तो ये केंचुए खाक में मिल जाते हैं और नेचुरल सोर्स खत्म हो जाता है. इसके अलावा अगर हिसाब लगाकर देखा जाए तो 1 चन पराली जलाने से 5.5 किलो नाइट्रोजन, 1.2 सल्फर, 400 किलो जैविक पदार्थ, 54 किलो ज़रुरी माइक्रोब्स खाक हो जाते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल करीब 20 लाख टन पराली जलाई जाती है.