‘पति से करा दी थी बहन की शादी’ ऐसी है सावित्री बाई फुले की कहानी

सरकार की नीतियों और बीजेपी के एजेंडे से नाराज सांसद सावित्री बाई फुले ने अपना नाता पार्टी से तोड़ लिया। बसपा से बीजेपी में आईं सावित्री बाई फुले यूपी के बहराइच से पहली बार सांसद बनी थीं।

उनका बागी व्यक्तित्व ही है जिसने राजनीति में उनको इस मुकाम पर लाया। जिद करने अपने हक लिए बचपन से लड़ जाने वाली दलित सांसद ने बीजेपी और मोदी सरकार पर दलितों के लिए कुछ नहीं करने का आरोप लगाकर किनारा कर लिया। बीजेपी छोड़ने वाली सावित्री बाई फुले कहती हैं मैं सिर्फ अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रही हूं. अपने समाज के अधिकार की मांग कर रही हूं. पक्ष हो या विपक्ष, मांग तो सरकार से ही की जाती है. अपने अधिकार की मांग करना भी गुनाह है क्या? बहुजन समाज को सम्मानित जीवन जीने का अधिकार संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर ने दिलवाया है, यूपी में उनकी मूर्तियां तोड़ी जा रही हैं, इसलिए उनके अपमान पर चुप नहीं बैठूंगी.

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संघर्ष की कहानी से प्रभावित हुए थे मोदी

सावित्री बाई के बारे में कहा जाता है कि पीएम मोदी ने जब 2014 से पहले उनके संघर्ष की कहानी सुनी तो गृह राज्य गुजरात से लोकसभा चुनाव लड़ने का ऑफर दे दिया। लेकिन जब सावित्री ने अपनी जन्मभूमि से चुनाव लड़ने की इच्छा जताई तो बीजेपी ने उनकी मांग पूरी की। सावित्री बाई फुले भगवा ब्रिगेड में दलित महिला चेहरा थीं। जिनका बाल विवाह छह साल की उम्र में हो गया था। जिसका उन्होंने जमकर विरोध किया था।

पति से कराई बहन की शादी

फुले  कहती हैं, ”शादी हुई जरूर थी, लेकिन विदाई नहीं हुई थी. बाल विवाह के बावजूद फूले आठ साल की उम्र से ही समाज सेवा से जुड़ गईं थी, लेकिन राजनैतिक जीवन की शुरुआत 10 साल की उम्र से हुई. जिसके बाद उन्होने बहन की शादी अपने पति से कराकर वे पूरी तरह से संन्यास धारण कर बहराइच के जनसेवा आश्रम से जुड़ गईं. उसके माध्यम से गरीब लड़कियों की शादी कराना, साधुओं का भंडारा, प्रवचन जैसे काम में मन लगाकार काम किया। आश्रम में रहकर उन्होंने मजदूरी से लेकर खेतों में फसल की कटाई और घर-घर से भिक्षाटन कर जीवन का निर्वाह किया है.

वजीफे के लिए प्रिंसिपल से लड़ीं

फुले की राजनीति में आने की कहानी बेहद दिलचस्प है। कहा जाता है, जब उन्होंने आठवीं कक्षा पास की तो सरकारी योजना के तहत उन्हें 480 रु. का वजीफा मिला था। जिसे स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक ने गबन करके अपने पास रख लिया. जो फुले को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्होंने विरोध किया और कहा कि मैंने पढ़ाई की है इसलिए सरकार की ओर से आया वजीफा मुझे मिलना चाहिए. इससे नाराज प्रिंसिपल और टीचर ने उनका नाम काट दिया, जिसके बाद उनकी पढ़ाई तीन साल के लिए घर बैठना पड़ा। यहीं से सावित्री की असल राजनीतिक संघर्ष की शुरुआत हुई.

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बीजेपी से पहले बीएसपी में रहीं सावित्री

राजनैतिक करियर की शुरुआत 2001 में हुई, जब वे पहली बार बहराइच जिला पंचायत की सदस्य चुनी गईं. उसके बाद वे 2005 और 2010 में भी इस पद पर आसीन हुईं. बीजेपी से पहले बीएसपी में रह चुकी सावित्री का राजनीति में धन-बल और राजनैतिक संरक्षण के महत्व की बात को दार्शनिक अंदाज में खारिज करती हैं. सावित्री के मुताबिक ”पहले जन बल, फिर कोई और बल चुनाव में मायने रखता है.”

पीएम ने दिया था गुजरात से चुनाव लड़ने का ऑफर

पीएम मोदी से मुलाकात और बीजेपी में शामिल होने की घटना ऐसी है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में सावित्री ने जूनागढ़, राजकोट और सूरत में प्रचार किया था। वहीं मोदी से उनकी पहली मुलाकात हुई थी. मोदी के सामने जब उन्होने लोकसभा चुनाव लड़ने की इच्छा जाहिर की, तो मोदी ने उनसे कहा, ”तुम बहराइच से क्यों, गुजरात आ जाओ मैं तुम्हें वहां से भी लड़ा सकता हूं. ” लेकिन फुले कहती हैं कि उन्होंने अपनी जन्मभूमि बहराइच से ही लडऩे का अनुरोध किया. जिसके बाद 2014 में उनको बीजेपी ने बहराइच से न सिर्फ टिकट दिया बल्कि उनके बुलाने पर पीएम ने उनके लिए बड़ी सभा को संबोधित भी किया था।

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