नितीश कुमार तो ‘छोटा भाई’ मैटेरियल हैं ही नहीं

नितीश के लिए दोराहा है। इतनी जल्दी लालू और कांग्रेस के पास वापस जाना असंभव जैसा है। दूसरा रास्ता बीजेपी का अनुगमन उनके बेसिक नेचर के खिलाफ है। यह भी असंभव है। लिहाजा सियासत के इस चतुर सुजान ने तीसरा रास्ता खोल दिया है। जहां एक ही मर्ज के दो और मरीज पासवान -कुशवाहा उनके साथ हैं।

नितीश कुमार

पंकज शुक्ला: ज्यादा नहीं 3 साल पहले की बात है। लालू यादव ने बिहार में नितीश कुमार को अपना छोटा भाई बताकर वोट मांगे थे। उनका छोटा भाई अब कभी दूर नहीं जाएगा. ये भरोसा भी लालू छाती ठोक कर दिया करते थे लेकिन 2 साल के अंदर ही नितीश लालू की आरजेडी से अलग होकर अपने “दुश्मन” नरेंद्र मोदी से जा मिले औज आज इसके एक साल बाद वो एक नया मोर्चा बनाकर अब मोदी के लिए दिक्कत बनते दिख रहे हैं।

ख़ास बात यह है कि नितीश के साथ ‘मौसम विज्ञानी’ पासवान भी खड़े हैं तो बिहार से एनडीए के तीसरे सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा भी इस कंपनी में शामिल हैं।

लालू प्रसाद यादव ने 2015 का पूरा विधानसभा चुनाव नितीश मेरा छोटा भाई है- नितीश मेरा छोटा भाई है, कह-कह कर लड़ा। राष्ट्रीय जनता दल के मुकाबले सीटें छोटे भाई के जनता दल युनाइटेड को कम मिलीं मगर वादे के मुताबिक मुख्यमंत्री छोटा भाई ही बना क्योंकि लालू ने समझौते के मुताबिक पहले ही ऐलान कर रखा था कि गठबंधन का चेहरा नितीश ही होंगे।

रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा आज नितीश के साथ खड़े हैं

अब से थोड़ा पीछे जाकर याद कर लेते हैं नितीश की एनडीए से विदाई। जैसे ही तय हुआ था कि एनडीए की तरफ से नरेंद्र मोदी पीएम कैंडिडेट होंगे, नितीश ने एनडीए से पुराना रिश्ता बिना समय गंवाए ख़त्म कर दिया था।

नीतीश कुमार, उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान

 

इधर दो महीने से बीजेपी के लिए नितीश ज्यादा असहज हो गए हैं या यूं कह लें हिंदी बेल्ट में उपचुनाव के परिणाम आने के बाद। लोकजनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा आज नितीश के साथ बिहारी मोर्चे के तौर पर खड़े हो गए हैं।

दोनों मोदी सरकार में मंत्री हैं और नितीश की सोहबत में ढलने के साथ ये दोनों भी बोलने लगे हैं। चार साल तक बाकी एनडीए सहयोगियों की तरह मूकदर्शक रहे पासवान और कुशवाहा अपने बयानों में मोदी सरकार को मशविरे देने लगे हैं।

नितीश बिहार में बीजेपी का पिछलग्गू बनकर रहने वाले नहीं-

अब सीधे आ जाते हैं हाल में हुई जनता दल (यूनाइटेड) कोर कमेटी बैठक के परिणाम पर जिसका लब्बो-लुआब यह है कि नितीश जी बिहार में बीजेपी का पिछलग्गू बनकर रहने वाले नहीं। सीटों के बंटवारे समेत सभी मुद्दों पर शर्तें तो नितीश ही तय करेंगे।

छिपा हुआ लेकिन बिना कहे जाहिर संदेश यही है कि साथ चलना है या नहीं बीजेपी तय कर ले। पासवान और कुशवाहा से दोस्ती का सन्देश भी साफ़ है कि अलग होने की सूरत में हम एक होकर लड़ लेंगे। चुनाव में ना जाएं लालू और कांग्रेस के साथ बीजेपी का गुलाम बनकर अपनी दुर्गति नहीं करवाएंगे।

जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन का कहना है- “मोदी जी निश्चित तौर पर एनडीए का देश में चेहरा हैं मगर बिहार में एनडीए का चेहरा सिर्फ और सिर्फ नितीश कुमार ही हो सकते हैं। वह सर्वाधिक अनुभवी मुख्यमंत्री हैं और वही बिहार में जिताऊ चेहरा हैं। ” बस यहीं से और इसी से नितीश की सियासत को समझा जा सकता है। दरअसल नितीश ‘छोटा भाई’ वाला मैटेरियल हैं ही नहीं। वो अपनी छवि को लेकर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी से बीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं।

नितीश एनडीए में तब तक ही सहज रहे, जब तक उनका अपर हैण्ड रहा। बिहार के अंदर वह बड़े भाई ही रहे और बीजेपी छोटा भाई। बीजेपी नेता सुशील मोदी तो व्यवहार में भी हमेशा उनके छोटे भाई बनकर ही रहे। बिहार के सियासी गलियारों में मज़ाक चलता था कि नितीश आज कह दें तो उनके डिप्टी सीएम मोदी बीजेपी छोड़ जेडीयू ज्वाइन कर लें।

नीतीश कुमार और मोदी

लालू का छोटा भाई बनकर नितीश का राजनीतिक नुकसान हुआ

मोदी युग आरंभ होते ही नितीश समझ गए थे कि वो नयी बीजेपी में खुद को फिट नहीं कर पाएंगे। यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गुजरात के सीएम रहते मोदी जैसी मार्केटिंग-ब्रांडिंग उनकी नहीं हो पायी, मगर नितीश को भी तमाम हलकों में कई बार पीएम मैटेरियल बोला गया है।

लालू के मुंह से लगभग हर सभा में छोटा भाई वाला जुमला सुनंना उस वक़्त का तकाज़ा था, यह नितीश ने मोदी के साथ कम्फर्ट लेवल हासिल करने के बाद पलटी मार कर लालू को जता दिया।

नितीश ने यह भी देखा कि लालू का छोटा भाई बनकर उनका राजनीतिक नुकसान हो रहा है। 2010 के मुकाबले वह 115 सीट से 2015 में 71 सीटों पर आ गए। आरजेडी जरूर 22 से सीधा 80 पर पहुंच गयी। लालू के साथ सुशासन बाबू वाली छवि को जो नुकसान हो रहा था वह अलग।

पहले झटके में उन्होंने उस अराजकता से खुद को बाहर किया जो आरजेडी की वजह से उनकी मजबूरी बन रही थी। आज नरेंद्र मोदी की वापसी रोकने के लिए पूरा विपक्ष लामबंद है तो 2014 में मोदी का रास्ता रोकने के लिए जिस नितीश ने पहली बगावत की थी, वो आज मोदी के साथ खड़े हैं।

फिलहाल नितीश का लालू और कांग्रेस के पास वापस जाना असंभव जैसा

नितीश के लिए दोराहा है। इतनी जल्दी लालू और कांग्रेस के पास वापस जाना असंभव जैसा है। दूसरा रास्ता बीजेपी का अनुगमन उनके बेसिक नेचर के खिलाफ है। यह भी असंभव है। लिहाजा सियासत के इस चतुर सुजान ने तीसरा रास्ता खोल दिया है।

जहां एक ही मर्ज के दो और मरीज पासवान -कुशवाहा उनके साथ हैं। तीनों के वोट बैंक इंट्रेस्ट एक से हैं। एक पासवान ही बिहार में महादलित सूची से बाहर हैं। नितीश ऐसा करके पासवान को उनकी बिरादरी का इतिहास पुरुष बना सकते हैं। तो कुशवाहा महा पिछड़ी जातियों का भला करवाकर इस लामबंदी को नया आयाम दे सकते हैं।

नीतीश कुमार और लालू

आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर बिहार एनडीए की बैठक 7 जून को है। नितीश कुमार विशेष राज्य के दर्जे की मांग और नोटबंदी की बुराई वगैरह के जरिये अपना काम कर चुके हैं। बिहार की 40 लोकसभा सीटों के बंटवारे में बीजेपी कितना झुकेगी यह आने वाले दिनों में साफ़ होता चला जाएगा।

जानकार मानते हैं कि नितीश अब अपना टफ स्टैंड नहीं बदलने वाले यह तय मानिए। इसलिए भी क्योंकि उन्हें अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि की भी बहुत फिक्र है। जेडीयू की परंपरागत जोकीहाट सीट उपचुनाव में हार ने उन्हें और ज्यादा सतर्क कर दिया है। यहां मुसलमान वोटर ज्यादा हैं, लेकिन पहले बीजेपी के साथ के बावजूद मुसलमान उन्हें वोट देने में परहेज नहीं करते थे।


पंकज शुक्ला
(लेखक राजसत्ता एक्सप्रेस के संपादक  हैं )

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